मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को आग के हवाले करने की परंपरा के चलते भारत में हर साल 50 से 60 लाख पेड़ काटे जाते हैं. ऐसे समय में जब दुनिया में पर्यावरण असंतुलन पर गंभीर विमर्श हो रहा हो, अंतिम संस्कार के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई क्या उचित है? क्या इस पर पुनर्विचार नहीं होना चाहिए? अंतिम संस्कार वायु प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है, इसलिए अंतिम संस्कार की वैकल्पिक पद्धतियों को प्रयोग में लाना चाहिए इसके चलते ‘जंगल काटे जा रहे हैं और मृत शरीरों के दहन से दूषित करनेवाले गैस निकलते हैं, जो हवा को प्रदूषित करते हैं.’भले ही लोग मृत शरीर के खुले में जलाये जाने को ‘आत्मा के मुक्त होने’ और ‘मोक्ष प्राप्ति’ से जोड़ते हों, वास्तविकता में वह पर्यावरण के लिए खतरा है,
मसलन, दिल्ली में पर्यावरण की बेहतरी के लिए सक्रिय एक संस्था ‘मोक्षदा’ ने दहन के वैकल्पिक तरीकों को विकसित करने की कोशिश की है. संस्था के मुताबिक, पारंपरिक तरीकों के दाह संस्कार से लकड़ी के जलने से हवा में लगभग अस्सी लाख टन कार्बन मोनोआॅक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. दहन के बाद निकलनेवाली राख जलाशयों या नदियों में फेंकी जाती है, जो उनकी विषाक्तता बढ़ाती है.
एक शव को ढंग से जलाने में लगभग चार क्विंटल लकड़ी लग जाती है. वजन बढ़ाने के लिए लकड़ियां गीली रखी जाती हैं, जो अधिक धुआं पैदा करती हैं,
निश्चित ही लकड़ी पर जलाने के बजाय विद्युत शवदाह गृह ज्यादा अनुकूल एवं आसानतरीका हो सकता है या सीएनजी आधारित शवदाह गृह भी प्रयुक्त हो सकते हैं, मगर लोगों में जो धारणाएं मौजूद हैं, वह इस रास्ते में बड़ी बाधा हैं. शवदाह गृहों के बंद होने, उनमें अचानक खराबी आने जैसी समस्याओं का लोगों को सामना करना पड़ता है. ऐसे शवदाह गृहों पर जो कर्मचारी तैनात होते हैं, वे भी जागरूक नहीं होते.
इस मसले पर जागरूकता ही सबसे महत्वपूर्ण है. कोई कानून काम नहीं आयेगा, हर जीते इनसान को ही बोलना होगा कि मृत्यु के बाद उनके परिजन ऐसा कोई तरीका इस्तेमाल न करें, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदेह हो. कब्रगाहों के बारे में भी अक्सर यही बात आती है कि अब जगह कम पड़ने लगी है यानी वहां भी देर-सबेर कोई दूसरा उपाय तलाशना पड़ेगा.
जैसा माहौल देश में बन रहा है, यह भी संभव है कि धार्मिक आजादी की बात करते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करनेवाले इस मसले पर बात ही न होने दी जाये. हालांकि, उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के सचेत लोग इसे अपनी आस्था के साथ जोड़ कर नहीं देखेंगे और पर्यावरण एवं समाज के भविष्य के बारे में जरूर सोचेंगे।
जय पासी समाज
लेखक : अच्छेलाल सरोज, इलाहाबाद