ओवैसी क्या है? अगर समझना चाहते हैं तो आपको शकील अख्तर का लिखा ये लेख पढ़ना चाहिए
औवेसी ने अपने चेहरे से सियासत की नकाब उतार दी है। धार्मिक नेताओं से दो कदम आगे जाकर वे मजहबी मामले में खुल कर बोलने लगे हैं। अभी बोला तो उन्होंने कर्नाटक में है मगर उसका असर उत्तर प्रदेश में हो रहा है। औवेसी ने अयोध्या में बन रही मस्जिद को अस्वीकार्य कर दिया। इसे हराम करार दे दिया। औवेसी के इस बयान ने यूं तो देश भर में हलचल मचा दी मगर यूपी जहां एक बार फिर मुस्लिम-जाट समीकरण बनता नजर आ रहा हैं वहां मुसलमानों के बीच एक अनावश्यक बहस पैदा कर दी। मुस्लिम धर्म के अधिकांश विद्वानों ने औवेसी के इस बयान की निंदा की है। इसे गलत बताया है। कहा कि वे अपनी राजनीतिकरें। मजहब के मामले में टांग न अड़ाएं।
मंदिर-मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार मुसलमानों ने अयोध्या में नई जगह पर 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए मस्जिद की नींव रखी। किसी भी विवाद से बचने के लिए मस्जिद का नाम उस गांव धन्नीपुरा पर रखने का भी फैसला किया, जहां इस मस्जिद के लिए जगह मिली है। मस्जिद के साथ वहां 200 बेड का हास्पिटल, एक बड़ा कम्युनिटी किचन जहां से गरीब, निराश्रित लोगों को खाना मिले के साथ अन्य सामाजिक सेवा के काम भी करने के फैसले लिए। सारा काम एक ट्रस्ट बनाकर पारदर्शी तरीके से सबको साथ लेकर करने की शुरुआत हुई। मगर औवेसी ने मस्जिद पर ही सवाल उठाकर इन सारी सद्भाव और भाइचारे की कोशिशों को विवाद में घसीटने का अक्षम्य अपराध किया है।
सिर्फ अयोध्या, यूपी ही नहीं पूरे देश के मुसलमान इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म करना चाहते है। अदालत के फैसले के बाद से उन्होंने संयम और समझदारी बना कर रखी। राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए मध्य प्रदेश में कुछ जगह लोग मस्जिदों के अंदर पहुंचे। मस्जिदों की मिनार पर चढ़ गए तब स्थानीय मुसलमानों ने संयम बनाए रखा। साथ ही मध्य प्रदेश सहित देश भर के तमाम हिस्सों से राम मंदिर निर्णाण के लिए अपनी तरफ से सहयोग राशि भी दी। सबका उद्देश्य एक ही था कि सद्भाव बना रहे और मंदिर- मस्जिद विवाद खत्म हो ताकि देश प्रगति के पथ पर वापस आगे बढ़ सके। लेकिन ऐसे में औवेसी ने एक उस बहस को छेड़ा है जिसे भूल कर मुसलमान आगे बढ़ना चाहते हैं।
औवेसी का उद्देश्य क्या है यह अब किसी से छुपा नहीं है। वे धर्म के आधार पर भावनाओं का खेल खेलने की तरफ बढ़ रहे हैं। इसके नतीजे मुसलमानों के लिए क्या होंगे यह शायद वे सोचने को तैयार नहीं हैं। हैदराबाद में उन्होंने स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा को मजबूत करके जो राजनीति शुरू की है उसका बड़ा रूप अब बंगाल में दिखाई देने वाला है। भाजपा को औवेसी और औवेसी को भाजपा पूरी तरह सूट कर रहे हैं। दोनों धर्म का इस्तेमाल करके उन राजनीतिक दलों को किनारे करना चाहते हैं जिनका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है। बंगाल में भाजपा बहुत छोटी और नई पार्टी है और असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम का वहां कोई अस्तित्व ही नहीं है।
ये ठीक वैसी ही स्थिति है जैसी हैदराबाद में थी। वहां औवेसी का थोड़ा असर था और भाजपा कहीं नहीं थी। मगर नगर निगम के चुनावों में क्या हुआ? दोनों की नूरा कुश्ती ने हैदराबाद में भाजपा को बड़ी ताकत बना दिया। वह चार सीट से सीधे 48 पर पहुंच गई। औवेसी जिनका हैदराबाद गढ़ है भाजपा से पीछे रही। उसे 44 सीटें मिलीं। लेकिन औवेसी को इसका गम नहीं है। यहां भाजपा ने उन्हें चैलेंज किया था तो वह आगे बढ़ी बिहार में औवेसी ने भाजपा को चुनौति देकर हासिल तो पांच सीट की मगर महागठबंधन को कई सीटों पर पीछे धकेल कर भाजपा, नीतीश की सरकार फिर से बनवा दी। अब दोनों को एक दूसरे की मदद से आगे बढ़ने की राजनीति रास आने लगी है। दक्षिण में कर्नाटक के अलावा भाजपा कहीं नहीं थी। मगर औवेसी ने उसे हैदराबाद में नंबर दो की पार्टी बना दिया। स्थानीय टीआरएस से थोड़ी ही कम।
भाजपा को समझ में आ गया है कि दक्षिण में और दक्षिण में क्या पूरे भारत में औवेसी से लड़ती हुई दिखकर वह ऐसी कामयाबी हासिल कर सकती है जो इससे पहले उसे कभी नहीं मिली थी। पांच राज्यों के इसी साल होने वाले चुनावों में औवेसी हर जगह जाएंगे। और इसका फायदा किसको होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। औवेसी की राजनीति दो तरह से काम करती है। एक वे धर्मनिरपेक्ष दलों के वोट काटते हैं और दूसरे धार्मिक आधार पर भाजपा के वोटों के ध्रुविकरण को और मजबूत करते हैं।
इस काम को और तेज गति देने के लिए ही उन्होंने उस मस्जिद के नाम से विवाद छेड़ा जिसे भुलाकर मुसलमान आज के मुद्दों पर बात करना चाहते हैं। आज किसान बिल सबसे बड़ा मुद्दा है। पूरा देश आंदोलित है। दो माह से ज्यादा समय से किसान कड़कड़ाती ठंड में सड़कों पर बैठा है। उसमें हर जाति, धर्म का किसान शामिल है। लेकिन उनकी सुनवाई होना तो दूर उन पर हमला करके उन्हें हटाने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे ही जब राकेश टिकैत को हटाने के लिए कुछ लोग गाजीपुर पहुंचे और उनके साथ बहुत ही अभद्र व्यवहार किया तो टिकैत मीडिया के सामने अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और उनके आंसू बह निकले। ये आंसू पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सैलाब बन गए। जो किसान धरना स्थल से लौट गए थे वे वापस आने लगे।
मुज्जफरनगर और मथुरा में बड़ी किसान महा पंचायते हुईं। मुज्जफर नगर की सभा में महेन्द्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे नरेश टिकैत के साथ जयंत चौधरी और चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के साथी रहे गुलाम मोहम्मद जौला भी थे। जौला ने मंच से कहा कि जाटों ने दो बड़ी गलतियां की हैं। एक मुसलमानों को मारा दूसरा अजीत सिंह को चुनाव हरवाया। इसी का परिणाम है कि आज महेन्द्र सिंह टिकैत के लड़के नरेश टिकैत को धमकाया जा रहा है। और वह रो रहे हैं। जौला के 2013 के मुज्जफर नगर दंगे का दुःख व्यक्त करने के बाद नरेश टिकैत ने उन्हें गले लगा लिया और जयंत ने पांव छू लिए। इसके बाद माहौल पूरी तरह बदल गया और जाट और मुस्लिम के साथ आने की बात फिर से होने लगी। सबने आंदोलन को मजबूत करने और फिर वापस समाजिक सद्भाव बनाने की बात कही।
लेकिन कुछ लोग दोस्ती की इस वापसी से परेशान हैं। वे मुसलमानों को बार बार मुज्जफरनगर दंगे की याद दिला रहे हैं। मुसलमानों का बड़ा हिस्सा इन कड़वी यादों को भुलाकर नई शुरुआत करना चाहता है। वह न मस्जिद विवाद में फंसना चाहता है और न ही दंगों के पुराने जख्मों को कुरेदना। यही सकारात्मकता है। लेकिन नकारात्मक और ध्रुविकरण की राजनीति करने वालों को यह सदभाव और भाइचारे की सोच रास नहीं आ रही है। मगर यह जंग हमेशा हुई है।
प्रेम और नफरत में। शांति चाहने वालों और तनाव बढ़ाने की कोशिश में लगे रहने वालों के बीच। इसी को सत्य और असत्य की लड़ाई भी कहते हैं। और अंत में कौन जीतता है यह भी सब को मालूम है!