प्रस्तावना: मेरे एक मित्र की मेरठ जिले में ड्यूटी लगी थी कांवड़ रुट पर. मैंने उन्हें एक सोशल एक्सपेरिमेंट करने के लिए रिक्वेस्ट किया.
हाइपोथिसिस : कांवड़ यात्रा में जाना सवर्णों ने छोड़ दिया है.
शोध प्रश्न – मेरठ के कांवड़ा यात्रा रूट से गुजरने वाले भक्त जनेऊधारी हैं या नहीं?
शोध विधि – 500 कांवड़ यात्रियों के सैंपल साइज में जनेऊधारी और गैरजनेऊधारी देखना था. उन्होंने एक जगह पर सिक्युरिटी चेक के नाम पर बैरियर लगाकर खुद चेकिंग की. इसके लिए उन्हें सिर्फ कंधे पर हाथ रखना था. सारा डाटा प्राइमरी हैं और इंपीरिकल तरीके से इकट्ठा किया गया. डाटा संग्रह में गलती की संभावना इतनी है कि किसी व्यक्ति ने अगर उस खास दिन जनेऊ नहीं पहना है, तो इसका असर डाटा पर पड़ेगा.
निष्कर्ष – आप जानते हैं क्या पता चला? उस सैंपल में एक भी जनेऊधारी नहीं था.
विमर्शः भारत में धर्म का बोझ ओबीसी और दलित अपने कंधे पर ढो रहा है. उस धर्म को, जो उसे सवर्ण जातियों से नीच बताता है. जो उसकी ज्यादातर तकलीफों का कारण हैं. जिसने उसके साधारण नागरिक होने के मार्ग में बाधाएं खड़ी हो गई हैं.
इसे ग्राम्शी “हेजेमनी बाई कसेंट” यानी सहमति से चल रहा वर्चस्ववाद कहते हैं. यह जबरन या दबाव की वजह से काम नहीं करता. नीचे वाला ऊपर वाले को ऊपर वाला मानता, इसलिए जातिवाद चल रहा है.
एक बार दलितों और ओबीसी रीढ़ की हड्डी सीधी करके खड़ा हो गया, तो जातिवाद का खेल खत्म.।
कांवड़ यात्रा आरएसएस की सोंची समझी रणनीति का हिस्सा था ,जिसका लाभ भाजपा को मिल गया, और सवर्ण हिंदुत्व ऐजेंडे पर सत्ता पर काबिज़ हो गया।
अब वह शासन सत्ता बैठकर अपने व आने वाली पीढ़ियों का बंदोबस्त में लगा है। और दलित पिछड़े लोग कावड़ यात्रा लेकर ‘बोल बम.. बोल बम’हर हर महादेव करने में मस्त है।