○अजय प्रकाश सरोज
एक बार फिर भड़क लीजिए आप लोग क्योंकि मुझे पता है कि मायावती के खिलाफ कुछ भी लिखने बोलने पर माया भक्तों द्वारा मुझे भाजपा और RSS का एजेंट करार दिया जाएगा । लेकिन भी जिद्दी हूं ,सच कहने का आदी हूं और लिखने से पीछे नहीं हटूंगा ।
अनुसूचित जाति /जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम -1989 का कानून जो सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी करने का फैसला लिया है । यह निर्णय दलितों के ऊपर से सुरक्षा कवच हटाने का गंभीर मामला है जिस पर सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार करना चाहिए ।
सदियों से देश में दलित और आदिवासियों के प्रति समाज के उच्च वर्णो में नफरत भरी पड़ी है । जो मौका मिलते ही दलितों और आदिवासियों पर हमलावार हो जाते हैं । उन्हें जानवरों की तरह मारा-पीटा जाता है । उनका शोषण व उत्पीड़न किया जाता है। देश की आजादी के बाद सत्ता में रहने वाली सरकारें दोषी है ही , लेकिन दलितों की हमदर्द कहने वाली पार्टी बहुजन समाज पार्टी भी कम दोषी नहीं है। इस कानून को कमजोर करने की ज़मीन 2007 में ब्राह्मणों के गठजोड़ से सत्ता में आई बसपा सरकार ने ही तैयार किया था। जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट ने फसल उगाने का काम किया है। 2007 में ब्राह्मणों के गठजोड़ से सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय वाली सरकार बनाते ही बसपा सरकार ने एससी/ एसटी एक्ट -1989 ,में संशोधित करके यह आदेश जारी किया कि हत्या और बलात्कार के मसलों को छोड़ करके बाकी जितने भी अपराध होंगे उसमें डीएसपी के स्तर पर जांच होने के बाद ही ग़ैर दलितों के खिलाफ मुकदमे पंजीकृत किए जाएंगे । बसपा के साथ ब्राह्मणों का यह सौदा भी कहा जा सकता है। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने परिसंघ नेता उदितराज की याचिका पर सुनवाई करते हुए 6 महीने के भीतर ही सरकार के इस फैसले को निरस्त कर दिया।और फटकार लगाते हुए कहा कि यह मामला कानून में संशोधन का है, इसको राज्य सरकार संशोधित नही कर सकती है । लेकिन सरकार के इस अध्यादेश को निरस्त होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के पुलिस महकमे में यह आदेश प्रैक्टिस में लगातार बना रहा । पुलिस अपनी सुविधा के अनुसार SC / ST अत्याचार एवं उत्पीड़न पर पुलिस विभाग के उच्च अधिकारी डीएसपी की जांच व अनुमति के बाद ही मुक़दमा पंजीकृत करती रही । लेकिन कोई भी राजनीतिक दल ने इस परंपरा का विरोध में बोलने की हिम्मत नही दिखाई । जबकि यह पूरी तरीके से असंवैधानिक था । जबकी 2015 में आए एससी /एसटी संशोधित एक्ट में भी इस तरह का जिक्र नही किया गया कि मुक़दमा के लिए उच्च अधिकारियों से अनुमति जरूरी है। बसपा सरकार द्वारा लिए गए फैसले ने जो जमीन तैयार की थी उसी का आधार बनाकर दस साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस दलित विरोधी फैसले को संवैधानिक चोला पहनाने की कोशिश की है। अब तो सिर्फ दो ही रास्ता है या तो सुप्रीम कोर्ट अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करें अथवा केंद्र सरकार संसद में कानून बना करके अनुसूचित जाति /जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को अधिक मजबूती प्रदान करें । जिससे दलितों और आदिवासियों के इज्जत ,आबरु ,मान,सम्मान और स्वाभिमान को बच सके । इस कार्य में सभी पार्टियों के दलित सांसदों की एकजुटता महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अंतिम तौर पर बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती का इस मसले पर क्या बयान आता है यह दिलचस्प होगा । (लेखक – श्रीपासी सत्ता पत्रिका के सम्पादक है और अनुसूचित जाति / जनजाति उत्पीड़न निवारण एवं सशक्तिकरण केंद्र इलाहाबाद के जिला प्रभारी है)