साथियों प्रो. सैमुअल बायरन का कहना है “या तो इतिहास बदलने में समय और उर्जा लगाओ या भविष्य पर फोकस होकर उसे बेहतर करने में जुट जाओ, दुनिया की जितनी जटिल कौमें हैं, सब इतिहास बदलने में, उसे अपने हिसाब से बनाने-दिखाने में लगी हैं, जिन कौमों का इतिहास नही है, कई बार वे बहुत बेहतर भविष्य की ओर जाती दिखती हैं संक्षेप में बात यह है कि जटिल न बनना, भविष्य बदलने में लगना| ब्रिटिश इंडिया एवं आधुनिक भारत की अनुसूचित जाति में शामिल पासी बिरादरी भारत वर्ष की बहादुर कौम होने के साथ ही प्राचीन मानव सभ्यता की जननी भूमि आधुनिक उत्तर प्रदेश के अवध प्रान्त सहित तराई भूमि की मूल निवासी जाति है जिसने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के किसान मदारी पासी का “एका आन्दोलन” हो या अमर शहीद वीरांगना उदा देवी की शहादत व पासी राजाओ के विस्म्रत कर दिये गये किले परिणाम है यदि आप आने वाली पीढियों को अपने पूर्वजो पर गर्व करना नही सिखायेगे तो इतिहास में ही मिलकर रह जायेंगे प्रस्तुत है पुस्तक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम : लखनऊ (1857) का अंश ….
पासी जाति का बलिदान
लखनऊ जनपद पासी जाति बाहुल्य क्षेत्र रहा है। ग्यारहवीं शताब्दी में पासी राजाओं का राज्य था। राजा लखना रजपासी था। उसी के नाम पर लखऊ का प्राचीन नाम लखनावती पड़ा। लखनऊ नगर से पश्चिम की ओर नौ मील दूर हरदोई रोड पर काकोरी नामक एक कस्बा है। वह स्थान अपने आम के बागों और क्रान्तिकारी काण्ड के लिये प्रसिद्ध है ही, अपने रोचक इतिहास के लिये भी प्रसिद्ध है। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में काकोरी पर कसमंडी (कसमंडप) महिलाबाद के निकट राजा कंस का अधिकार था जो जाति का पासी था। उस समय यहां पासी जाति की बस्ती थी। सन् 1130 में जब सैयद सालार गाजी मसूद दिल्ली से तशरीफ लाये तब उनकी इस राजा से जम कर जंग हुई और इस भयंकर लड़ाई में काकोरी राज्य कंस के हाथ से निकल गया तथा मुसलमानों के कब्जे में आ गया। कुछ मुस्लिम फकीर यहां आकर बस गये। लेकिन महमूद गजनवी के प्रभाव के कम होने के साथ ही काकोरी फिर पासियों का गढ़ बन गया। उसके बाद पासियों के जोर को दबाने के लिये सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश ने मलिक नसीरुद्दीन को यहां भेजा जो पासियों को पराजित करके दिल्ली की हुकूमत कायम कर गया मोहम्मद तुगलक के आखिरी वक्त तक इस पर दिल्ली का कब्जा बना रहा। सन् 1393 ई: में जौनपुर शर्की सल्तनत का केन्द्र बन चुका था और काकोरी का क्षेत्र शर्की राज्य की जागीर हो गया। जौनपुर से इस इलाके को संभालना कोई आसान काम नहीं था, ऐसे में पासियों ने फिर अपना सिक्का जमा लिया और धीरे-धीरे काकोरी को अपने अधीन्स्थ कर लिया। इसी युग में रजपासी राजा काकोरी ने काकोरी का किला बनवाया और इसके चारों तरफ बस्ती आबाद की। यह किला बिलकुल खंडहरों में बदल गया है फिर भी प्रवेशद्वार, जीर्ण-शीर्ण चहारदीवारी के कुछ भग्नावशेष अब भी शेष हैं। शर्की राज्य के तीसरे बादशाह सुल्तान इब्राहीम शर्की ने सन् 1401 में मानिकपुर के निकट राजा फकीर को पराजित किया और फिर यहां इस्लामी सत्ता कायम की जो सन् 1458 तक ठीक प्रकार से चलती रही।
लखनऊ शहर के दक्षिण-पूर्व में कस्बा बिजनौर बसाने वाला राजा बिजली रजपासी एक समय लखनावती का प्रमुख माना जाता था-इसके बनवाये हुए बारह दुर्ग लखनऊ के आस-पास फैले हुए थे। उनमें से कुछ भग्नावशेष आज भी मौजूद हैं, जिनमें पुराना किला, नरंगाबाद किला, जलालाबाद किला, मोहम्मदी नगर के अब भी नाम लिए जाते हैं। बिजली दुर्ग राजा बिजली रजपासी के बहुत दिन बाद मीरबिन कासिम के हाथों लगा। उसने इस किले को अपने दामाद जलालुद्दीन को बतौर नजराना दे दिया जिसके बाद किला जलालाबाद नाम पड़ा।
अंग्रेजों ने भी लखनऊ को अपना प्रमुख केन्द्र बनाया। रेजीडेन्सी, बेलीगारद में अंग्रेज अधिकारी रहते थे। सन् 1857 ई. की क्रान्ति में रेजीडेन्सी को क्रान्तिवीरों ने चारों ओर से घेर रखा था। क्रान्तिवीरों का नेतृत्व चेतराम रैदास कर रहे थे, जिनका बनवाया हुआ टिकैत राय तालाब के निकट चेतरामी तालाब आज भी मौजूद है। बेगम हजरत महल, मम्मू खां, जनरल बरकत अहमद ने एक योजना बनाई कि कानपुर से जब तक हेवलक की सेनायें लखनऊ आयें उससे पहले रेजीडेन्सी पर आक्रमण करके अपने अधिकार में ले लिया जाये। किन्तु रेजीडेन्सी में प्रवेश कर पाना उतना ही कठिन था जितना गोमती की धारा को उल्टा बहाना। चारों ओर से रेजीडेन्सी पर तोपें लगी थीं। अंग्रेज सैनिक मुस्तैदी से किसी भी आक्रमण को विफल करने के लिए तैयार थे।
हमारे पासी जाति के पुरखे सुरंग उड़ाने में बड़े पटू थे। अक्सर बेलीगारद वालों को उनसे नुकमान पहुंचता रहता था। 10 अगस्त 1857 को जनरल बरकत अहमद के नेतृत्व में पासी जाति के लोगों को साथ लेकर फौज ने बेलीगारद पर आक्रमण कर दिया। तीन दिन तक घमासान युद्ध होता रहा-बेलीगारद की सुंरगें उडऩे लगीं। रेजीडेन्सी में फंसे अंग्रेज भयभीत हो गये। लेकिन कानपुर से मि. हेवलक की सेनायों लखनऊ सीमा पर आ पहुंची तथा दूसरी ओर फैजाबाद से चिनहट तक आ गयीं। बंथरा मे उनका मुकाबला स्वयं बेगम हजरत महल ने किया लेकिन जख्मी हो गयीं और उनके वफादार सेनापति मानसिंह तथा कुंवर जियालाल सिंह उन्हें शहर ले आये।
सिकन्दर बाग के पास घमासान लड़ाई हो रही थी। कम प्रतिष्ठित पंक्तियों की स्त्रियां (अछूत) नगर की रक्षा के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर रही थीं, वे स्त्रियां जंगली बिल्लियों की तरह लड़ रही थीं, और उनके मरने के पहले यह पता नहीं चलता था कि वह स्त्रियां है या पुरुष। सिकन्दर बाग में सेमर के वृक्ष के नीचे जिसने अनेक अंग्रेजों को मार गिराया, वह महिला उजरियांव की थी जिसका नाम जगरानी था और जाति की पासी थी। अन्त में यह महिला भी गोली से घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुई। दुर्भाग्यवश बेलीगारद की क्रान्ति विफल हो गयी और उसमें 220 देशभक्त शहीद हुए तथा 150 घायल हुए जिसमें अधिकांश पासी जाति के अज्ञात अमर शहीद थे।
सभार -डी.सी. डीन्कर
(स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान पुस्तक से धन्यावाद सहित)