लेखक एक उच्च शिक्षित नौजवान है , परंतु उसकी अपनी बहुत सारी योग्यताएं भी उसे अभी तक आधुनिक जीवन में स्थापित नहीं कर पाई हैं । उसके अपने सपने जो उसने स्वयं के लिए और समाज के लिए देखे थे। आज समाज में फैली असमानता, जातिगत दुर्भावना, ऊँच-नीच की मानसिकता, धर्म की राजनीति भारतीय समाज के ढांचे में उच्च स्तर पर बैठे कुछ प्रतिशत लोगों की ओछी मानसिकता ने पिछले 2000 सालों से चली आ रही असमानता को और बढ़ावा दिया है, लेखक की इच्छा थी कि वह उन लोगों के लिए कुछ करें जो समाज की मुख्यधारा से मीलों पीछे छूट गए हैं, पर समय ने उसे ऐसा जकड़ा है कि उसे अपने लिए स्वयं सहायता की आवश्यकता महसूस हो रही है ,आज संबंधों में बंधा हुआ हर इंसान किसी ना किसी जिम्मेदारी में बंधा है मां- बाप, बेटा- बेटी, चाचा – चाची, भतीजा- भतीजी, भैया -भाभी ,नाना- नानी, मामा- मामी इत्यादि कुछ लोग इसे ऐसा भी कहना चाहेंगे कि मैं फला जिम्मेदारी में फंसा हूं परंतु यह कहना क्या अतिशयोक्ति नहीं होगा , कि जिम्मेदारी अपने परिवार की, जिम्मेदारी अपने समाज की, जिम्मेदारी अपने देश के प्रति कैसे पूरी करें, क्या मेरी यह जिम्मेदारी नहीं है, कि मैं अच्छी कमाई करूं , समय पर शादी कर अपने परिवार को बढ़ाऊँ, तथा बाकी परिवार को मानसिक सुख दूं, उनकी छोटी-छोटी इच्छाएं पूरी करने की कोशिश करूं परंतु अफसोस की बात है कि आज मैं ३५ की उम्र को पहुंच कर भी अपने आप को स्थापित नहीं कर पाया, तथा कहीं ना कहीं समाज कि नजरों में गैर जिम्मेदार दिखाई देने लगा, आज मैं इसी कशमकश में जी रहा था , कि भारतीय संस्कृति के अनुसार मेरे ऊपर एक जिम्मेदारी और बढ़ जाती है, कि मेरे माता पिता मेरी शादी करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं और इसी के चलते उन्होंने कहीं मेरी शादी तय कर दी है, आज समझ में नहीं आता मुझे कि वास्तव में जिम्मेदारियां जीवन में स्वाद भर्ती हैं या उसे बेस्वाद करती हैं, मुझे पता है कि मैं गलत नहीं हूं और मुझे इस बात का भी एहसास है कि मेरे घरवाले भी गलत नहीं है , जो इस समाज में अव्यवस्था फैली है, उसका क्या और इसकी क्या गारंटी है कि शादी के बाद जिंदगी खूबसूरत हो जायेगी, पर यह जरूर है कि कुछ नए रिश्तो का सृजन होगा जिन के प्रति भी जिम्मेदारियां और बढ़ेंगी सच में मुझे जिंदगी पर तरस आता है, इंसान को पता होता है कि बहुत सारे कार्य गलत हैं, फिर भी वह उन्हें करने को आतुर रहता है, बस यह सोच कर कि जो भी होगा अच्छे के लिए होगा जबरन वह उस कार्य में कोई सकारात्मक पहलू खोजने की नाकाम कोशिश करता है, हंसी आती है जब वह उन सभी नकारात्मक चीजों को बलात ही ना करने की कोशिश करता है , चीख-चीखकर उसे वह कार्य करने से मना करती हैं फिर मुझे एक लेखक की बात आती है, की जिम्मेदारियों को पूरा करने से अच्छा है कि एक नई जिम्मेदारी ले लेना इस कारण लोग पुरानी जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर देते हैं , उनका पूरा ध्यान उस नई जिम्मेदारी की ओर होता है, अब बहुत सारी जिम्मेदारियों को पूरा करते करते व्यक्ति का अहम भी बीच में आना स्वाभाविक ही है, जिसके कारण चाह कर भी वह वह जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय वह उसके पीछे भागने की कोशिश करता है, जिसमें उसे निजी सुख मिले परंतु उसकी अंतर- आत्मा उसे ऐसा करने से रोक देती है , जिससे वह वो कार्य करता है, जिससे उसकी जिम्मेदारी पूरी होती है, फिर उसे सुख मिले या दुख क्या फर्क पड़ता है जैसे आज समाज में एक ज्वलंत मुद्दा अंतरजातीय विवाह कर समाज सुधार में योगदान करें या उसी सड़ी-गली परिपाटी पर चलें आज समझ में नहीं आता है कि जिम्मेदारियों को पूरा करके अहम को शांति मिलती है जो किसी के अच्छे बुरे का ख्याल नहीं करता है, क्या वास्तव में आत्मिक सुख मिलता है? जो दूसरों के काम पूरा होने या दूसरों की खुशी से मिलता है । इंसान इस पृथ्वी का सबसे खूबसूरत रचना है, परंतु यह भी सत्य है कि उसके अंदर का अहम इस पृथ्वी पर सबसे बुरा है। भारत जैसे देश में आज इसका सबसे अच्छा उदाहरण शादी है शादी हर मां बाप के लिए एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है लेकिन जब वह शादी माता – पिता की इच्छा से ना हो तो बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता है । आज का आलम यह है कि जिम्मेदारियों के बीच बंधा हुआ इंसान जिम्मेदारियों को पूरा करते करते ऐसी जगह पहुंच जाता है जहाँ से जिम्मेदारियां भले ही पूरी हो ना हो परंतु इस के चक्कर में उसके संबंध जरूर खराब होने लगते हैं, काश इंसान यह समझ पाता कि हर जिम्मेदारी उस बिंदु पर आकर दम तोड़ देती है जिस बिंदु से उस व्यक्ति को उसके आसपास का समाज प्रताड़ित करना शुरू करता है, तो क्यों ना सर्वप्रथम समाज को संगठित करने का बीड़ा उठाया जाए समाज में व्याप्त असमानता ऊँच-नीच ,अज्ञानता ,छुआ -छूत ,अशिक्षा को दूर करने का बीड़ा उठाया जाये , और समाज को एक नई दिशा दी जाए जहां से समाज में एक नई ऊर्जा का संचार हो, क्यों ना हम बाबा साहब डाक्टर भीमराव अंबेडकर के पदचिन्हों पर चलें, क्यों ना हम माननीय स्वर्गीय श्री कांशी राम जी और बहन कुमारी मायावती पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश से सीख ले कर समाज को एकता रुपी धागे में पिरोने का काम करें तथा क्यों ना हम समाज के नव युवकों को महाराजा सुहेलदेव,महाराजा सातन ,महाराजा बिजली पासी जैसा शक्तिशाली योद्धा बनने को प्रोत्साहित करें ,क्यों ना हम अपने समाज की महिलाओं को वीरांगना उदा देवी की तरह निर्भीक और शक्तिशाली बनने पर जोर दें, क्योंकि यह भी तो एक जिम्मेदारी ही है, समाज के नौजवानों को अपने छोटे-छोटे सुखों की तिलांजलि देकर समाज की जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी अगर इसमें कष्ट है तो भी क्या कष्ट तो हर काम में है, परंतु यदि नौजवान समाज को मजबूत करने के रास्ते पर चलेगा तो उसका समाज दुनिया में दिखाई देगा, चमकेगा, दमकेगा क्योंकि जिम्मेदारियों का असली मकसद तो खुशी है, और समाज की सेवा करना और राष्ट्र की सेवा करने से ज्यादा सुख किसी और काम में कहां, तो साथियों खुशियों की बलि देकर भला कैसी जिम्मेदारी निभाना और अगर जिम्मेदारी ही निभाना है, तो इस संसार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी क्यों न निभाई जाए । – लेखक नीरज सिंह सरोज ,क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट , एमसीडी स्कूल, दिल्ली