आज अमर उजाला दैनिक अखबार में कौशाम्बी राजा गणपति नाग के विषय में छपी एक खबर पढ़ा तो छानबीन शुरू किया कुछ तथ्य सामने आये है आप सबसे साझा कर रहा हुँ—-अजय प्रकाश सरोज
भारशिव शासक गणपति नाग के विषय में काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक “अन्धकार युगीन भारत ” में विस्तृत वर्णन है । लेकिन महान शोधकर्ता ब्रह्मिलिपि के विषेशज्ञ भारशिव राजाओं के अध्ययन कर्ता श्री अमृत लाल नागर की पुस्तक “एकदा नैमिषारण्य” के पृष्ठ संख्या 314 पर अंकित तथ्य भारशिव सम्राट गणपतिनाग के प्रंशसा में लिखा है।
जो इस प्रकार है —
” तक्षक वंशीय महाराज गणपति नाग के सम्बन्ध में पहले भी किसी से प्रसंशा भरी बातें सुन चुका हूँ उन्होंने ब्रह्मिलिपि का परिष्कार करके उन्हें शिरो रेखा युक्त करके सुन्दर रूप दे रखा है ।हाँ नागों में उनसे श्रेष्ठ और सुलझा हुआ विद्धवान और निष्ठावान पुरुष मैंने नहीं देंखा । उनकी चलती तो भारशिवों का साम्राज्य प्रबल रूप से सुंगठित हो जाता ।'”
इतिहासकार रामदयाल वर्मा ने अपने पुस्तक ‘भारशिव-राजवंशानाम्’ में यह स्पष्टऔर सर्वविदित कर चुके है कि आज की पासी जाती की उत्पत्ति भारशिव वंश से हुई है। इसकी वीरता और पराक्रम का लोहा कई विदेशी आक्रमणकर्ता तथा उनके साथ आये लेखकों ने किया है। राजा गणपति नाग भारशिव राजवंश के अंतिम शाशक माने जाते है।
ईस्वी 345 में समुद्रगुप्त ने गुप्त वंशीय सम्राट बनकर अपना विजय अभियान चलाया तो उत्तर – भारत में भारशिव सम्राटों ने उसका मुहतोड़ जबाब दिया लेकिन अन्त में कई भारशिव राजाओ को उसने पराजित किया । इनमे से नौ भारशिव राजाओ का वर्णन इलाहाबाद के स्तम्भ में ब्रह्मिलिपि में लिखा है। जो अकबर किले में आज भी देखा जा सकता है। उन पराजित राजाओ में गणपतिनाग का नाम भी शामिल है। अपने विजय अभियान के दौरान समुद्रगुप्त ने राजनीतिक और कूटनीतिक चाल से भारशिव राजाओ को पराजित किया । समुद्रगुप्त ने खुद को मजबूत बनाये रखने के लिए अपना सामाजिक सम्बन्ध भी गणपति नाग से स्थापित किया था।
‘प्राचीन भारतीय संस्कृति ‘ नामक पुस्तक में लेखक बीएल लुनिया के अनुसार – “चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने पद्मावती के गणपति नाग और नागसेन नामक नाग राजाओ को पराजित करके उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिया। इस मैत्रीक सम्बन्ध को वैवाहिक संबंध से मजबूत किया गया। चंद्रगुप्त द्वितीय जो समुद्रगुप्त का छोटा पुत्र था ,का विवाह नागवंशीय कन्या कुबेर नाग से हुआ। जो महादेवी नाम से विख्यात थीं।इन दोनों से प्रभावती गुप्त नामक राजकन्या पुत्री हुई।”
बाद में समुद्रगुप्त से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने से भारशिवों के वंशज, गुप्तवंश के राजाओं के शासन काल में आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने लगे । इन्हें” दंड पाशाधिकारी” कहा जाता था। राज्य में सुरक्षा और शान्ति ब्यवस्था की जिम्मेदारी इन्ही भारशिवों के वंशजो को सौंपा जाता था। इनके पास दंड देने के लिए लाठी और रस्सी हुआ करती थीं। धीरे धीरे यह’ दंड पाशिक” वर्ग बन गया ।
550 ईस्वी में गुप्त नरेशो की समाप्ति के बाद सांतवी शताब्दी में हर्षवर्धन के समय जाति का प्रारंभ हो जाता है । जो जिस काम को करता था उसकी वंही जातीय पहचान बनती चली गई। और यही “दण्ड पाशिक” बनते बिगड़ते पासी हो गए ।
अब पासियों को अपने गौरवशाली इतिहास की जानकारी करनी चाहिए। अपनी जाति का सौंदर्य बोध करके आज के परिवेश में नया रास्त्ता निर्माण कर पुनः अपने गौरव को बहाल कराने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
( लेखक शोध छात्र है और श्रीपासी सत्ता पत्रिका का संपादन भी करते है)
वाह बहुत सही