आखिर युपी के सीएम योगी ने भी मान ही लिया कि महाराजा सुहेलदेव पासी पासी ही थे । अंग्रेज इतिहासकारों ने भी महाराजा सुहेलदेव पासी के पासी होने का प्रमाण दिया है । यहा तक कि उत्तरप्रदेश लोक सेवा आयोग के पुस्तक में भी महाराजा सुहेलदेव पासी का ही जिक्र ही है । केवल एक मात्र जैन ग्रंथ में ही महाराजा सुहेलदेव का राजभर के रुप में जिक्र है लेकिन जैन ग्रंथों को सबुतों के तौर पर प्रमाणिक नहीं माना जाता है । अंग्रेज इतिहासकारों ने सुहेलदेव को भारपासी (भारशिव पासी) माना है। मतलब महाराजा सुहेलदेव पासी (भारशिव वंशज ) ही थे ।ईस बात को बीजेपी प्रमुख अमित शाह ने भी माना है । अब आशा करते है कि योगी जी अपने किये वायदे के अनुसार महाराजा सुहेलदेव पासी के इतिहास को केवल महाराजा सुहेलदेव नहीं बल्कि उनके पुरे नाम महाराजा सुहेलदेव पासी के नाम से पाठ्यक्रम मे शामिल करायेंगे । – अमित कुमार जी की वाल से
हैरानी इस बात की है आप एक तरफ अपने को भारशिव भी कह रहे हो दूसरे तरफ भारशिवों (भरों) से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। आप चाहे जितना बचे पर आप राजभर के पहचान से अपने आप को दूर नही कर सकते। मेरे जानने में अभी कई लोग पासी से भारशिव और फिर राजभर बने हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार भारशिव भरों ने मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचने के लिए सुवर पालना सुरु किया और अपने आप को पासी कहकर बचना सुरु किया। और फिर आजादी बाद आरक्षण के लिए लोग अपने आप को पासी कहना सुरु कर दिए। और अभी मेरे जानने में ऐसे कई राजभर है जो पासी बनकर पढ़ाई और नौकरी कर रहे हैं। आप पासी भर की उत्पत्ति मानों चाहे भर से पासी की पर दोनों एक है । दोनों भारशिव हैं ये सब स्वीकार कर रहे हैं। दलित आंदोलन नाम पर चली राजनीति जिसमे एक खास वर्ग अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिए भर और पासियों के बीच ऐतिहासिक मतभेद पैदा किये।
जय भारशिव
जय पासी
जय राजभर
महाराजा बिजली राजभर
बारहवीं शताब्दी राजभर राजाओं के साम्राज्य के लिए बहुत अशुभ साबित हुई। इसी शताब्दी के अन्तिम वर्षों में अवध के सबसे शक्तिशाली राजभर महाराजा बिजली वीरगति को प्राप्त हुए थे। सन् 1194 ई. में इससे पहले राजा लाखन राजभर भी वीरगति को प्राप्त हुए। महाराजा बिजली राजभर की माता का नाम बिजना था, इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम अपनी माता की स्मृति में बिजनागढ की स्थापना की थी जो कालांतर में बिजनौरगढ़ के नाम से संबोधित किया जाने लगा।बिजली राजभर के कार्य शेत्र में विस्तार हो जाने के कारण बिजनागढ में गढ़ी का समिति स्थान पर्याप्त न होने के कारण बिजली राजभर ने अपने मातहत एक सरदार को बिजनागढ को सौंप दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पिता की याद में बिजनौर गढ़ से उत्तर तीन किलोमीटर की दूरी पर पिता नटवा के नाम पर नटवागढ़ की स्थापना की।यह किला काफी भव्य और सुरक्षित था। बिजली राजभर की लोकप्रियता बढ़ने लगी और अब तक वह राजा की उपाधि धारण कर चुके थे। नटवागढ़ भी कार्य संचालन की द्रिष्टि से पर्याप्त नहीं था, उसके उत्तर तीन किलोमीटर एक विशाल किले का निर्माण कराया जिसका नाम महाराजा बिजली भर किला पड़ा। जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं, अब राजा बिजली राजभर महाराजा बिजली राजभर के नाम से विभूषित हो चुके थे। यह किला लखनऊ जिला मुख्यालय से 8 किलोमीटर सदर तहसील लखनऊ के अंतर्गत दक्षिण की ओर बंगला बाजार के आगे सड़क के दाहिनी ओर आज भी महाराजा बिजली राजभर के साम्राज्य के मूक गवाह के रूप में विद्यमान है। महाराजा ने कुल 12 किले राज्य विस्तार के कारण बनवाये थे। 1- नटवागढ़ 2- बिजनौरगढ़ 3- महाराजा बिजली राजभर किला 4- माती 5- परवर पश्चिम 6- कल्ली पश्चिम किलों के भग्नावशेष आज भी मौजूद हैं। 7- पुराना किला 8- औरावां किला 9- दादूपुर किला 10- भटगांव किला 11- ऐनकिला 12- पिपरसेंड किला। उत्तर में पुराना किला, दक्षिणी में नींवाढक जंगल सीमा सुरक्षा के रूप में कार्य करता था। इसके मध्य में महाराजा बिजली राजभर का केन्द्रीय किला सुरक्षित था। महाराजा बिजली राजभर के अंतर्गत 94,829 एकड़ भूमि अथवा 184 वर्ग मील का भू-भाग सम्मिलित था, इस क्षेत्र की भूमि उपजाऊ थी, धान, गेहूं, चना, मटर, ज्वार। बाजरा आदि की खेती होती थी। महाराजा बिजली राजभर की प्रगति से कन्नौज का राजा जयचंद्र चिन्तित रहने लगा क्योंकि महाराजा बिजली राजभर पराक्रमी उत्साही और महत्वकांक्षी थे। बिजली राजभर के सैन्य बल एवं वीर योद्धाओं का वर्णन सुनकर जयचंद्र भयभीत रहता था। लेकिन अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए जयचंद्र की भी इच्छा रहती थी। जयचंद ने सबसे पहले महाराजा सातन राजभर के किले पर आक्रमण कर दिया, इस आक्रमण में घमासान युद्ध हुआ और जयचंद की सेनाओं को भागना पड़ा। इस अपमान जनक पराजय से जयचंद का मनोबल टूट गया था। किंतु बाद में जयचंद ने कुटिलता पूर्वक एक चाल चली और महोबा के शूरवीर आल्हा ऊदल को भारी खजाना एवं राज्य देने के प्रलोभन देकर बिजनौरगढ़ एवं महाराजा बिजली राजभर के किले पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। आल्हा ऊदल कन्नौज की सेनायें लेकर अवध आये और उनका पहला पड़ाव लक्ष्मण टीला था। इसके बाद पहाड़ नगर टिकरिया गये। बिजनौरगढ़ से 10 किलोमीटर दक्षिण की ओर सरवन टीलें पर उन्होंने डेरा डाला। यहां से उन्होंने अपने गुप्तचरों द्वारा बिजली राजभर किले से संबंधित सूचनाएं एकत्र की। जिस समय महाराजा बिजली राजभर अपने पड़ोसी मित्र राजा काकोरगढ़ के किले में आवश्यक कार्य से गये हुए थे। उसी समय मौका पाकर आल्हा ऊदल ने अपना एक दूत इस संदेश के साथ भेजा कि राजा हमें अधिक धनराशि देकर हमारी अधीनता स्वीकार करें। यह सूचना तेजी से संदेश वाहक ने महाराजा बिजली भर को काकोरगढ़ किले में दी उसी समय सातन पट्टी के राजा सातन राजभर भी किसी विचार विमर्श के लिए काकोरगढ़ आये थे। संदेश पाकर महाराजा बिजली भर घबराये नही। बल्कि धैर्य से उसका मुंह तोड जवाब भिजवाया कि महाराजा बिजली राजभर न तो किसी राज्य के अधीन रहकर राज्य करते हैं और न ही किसी को अपनी आय का एक अंश भी देने को तैयार हैं। जब आल्हा ऊदल का दूत यह संदेश लेकर पहुंचा उसे सुनकर आल्हा ऊदल झुंझलाकर आग बबूला हो गये और अपनी सेनाएं गांजर में उतार दी। यह खुला मैदान था, यहां पेड़ पौधे नही थे। इस स्थान पर मुकाबला आमने सामने हुआ। यह मैदान इतिहास में गांजर भांगर के नाम से मशहूर है। यह युद्ध तीन महीना तेरह दिन तक चला। इस युद्ध में सातन कोट के राजा सातन राजभर ने भी पूरी भागीदारी की थी। युद्ध बड़ा भयानक था। इसमें अनेक वीर योद्धाओं का नरसंहार हुआ। गांजर भूमि पर तलवार और खून ही खून था इसलिए इसे लौह गांजर भी कहा जाता है। वर्तमान में इस स्थान पर गंजरिया फार्म है। इस घमासान युद्ध में पराक्रमी राजभर राजा महाराजा बिजली राजभर बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह युद्ध सन् 1194 ई. में हुअा था। यह समाचार जब पड़ोसी राज्य देवगढ़ के राजा देवमाती को मिला तो वह अपनी फौजों के साथ आल्हा ऊदल पर भूखे शेर की भांति झपट पड़ा। इस युद्ध की भयंकर गर्जन और ललकार सुनकर आल्हा ऊदल भयभीत होकर कन्नौज की ओर भाग खड़े हुए। परन्तु आल्हा ऊदल के साले जोगा भोगा राजा सातन ने खदेड़ कर मौत के घाट उतार दिया और पड़ोसी राज्य से सच्ची मित्रता तथा राजभर समाज के शौर्य का परिचय दिया। महाराजा बिजली राजभर के किले के अलावा उनके अधीन 11 किलों का वर्णन इतिहास में बहुत ही सतही ढंग से किया गया है।
महाराजा सुहेल देव राजभर
ग्यारवी सदी के प्रारंभिक काल में भारत में एक घटना घटी जिसके नायक श्रावस्ती सम्राट वीर सुहेलदेव राजभर थे ! राष्ट्रवादियों पर लिखा हुआ कोई भी साहित्य तब तक पूर्ण नहीं कहलाएगा जब तक उसमे राष्ट्रवीर श्रावस्ती सम्राट वीर सुहेलदेव राजभर की वीर गाथा शामिल न हो ! कहानियों के अनुसार वह सुहलदेव, सकर्देव, सुहिर्दाध्वाज राय, सुहृद देव, सुह्रिदिल, सुसज, शहर्देव, सहर्देव, सुहाह्ल्देव, सुहिल्देव और सुहेलदेव जैसे कई नामों से जाने जाते हैं !
श्रावस्ती सम्राट वीर सुहेलदेव राजभर का जन्म बसंत पंचमी सन् १००९ ई. में हुआ था ! इनके पिता का नाम बिहारिमल एवं माता का नाम जयलक्ष्मी था ! सुहेलदेव राजभर के तीन भाई और एक बहन थी बिहारिमल के संतानों का विवरण इस प्रकार है ! १. सुहलदेव २. रुद्र्मल ३. बागमल ४. सहारमल या भूराय्देव तथा पुत्री अंबे देवी ! सुहेलदेव राजभर की शिक्षा-दीक्षा योग्य गुरुजनों के बिच संपन्न हुई ! अपने पिता बिहारिमल एवं राज्य के योग्य युद्ध कौशल विज्ञो की देखरेख में सुहेलदेव राजभर ने युद्ध कौशल, घुड़सवारी, आदि की शिक्षा ली ! सुहेलदेव राजभर की बहुमुखी प्रतिभा एवं लोकप्रियता को देख कर मात्र १८ वर्ष की आयु में सन् १०२७ ई. को राज तिलक कर दिया गया और राजकाज में सहयोग के लिए योग्य अमात्य तथा राज्य की सुरक्षा के लिए योग्य सेनापति नियुक्त कर दिया गया !
सुहेलदेव राजभर में राष्ट्र भक्ति का जज्बा कूट कूट कर भरा था ! इसलिए राष्ट्र में प्रचलित भारतीय धर्म, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा को अपना परम कर्तव्य माना ! राष्ट्री की अस्मिता से सुहेलदेव राजभर ने कभी समझौता नहीं किया ! इनसब के वावजूद सुहेलदेव राजभर ९०० वर्षो तक इतिहास के पन्नो में तब कर रह गए ! १९ वी. शादी के अंतिम चरण में अंग्रेज इतिहासकारों ने जब सुहेलदेव राजभर पर कलम चलाई तब उसका महत्व भारतीय जानो को समझ में आया ! महाभारत के बाद ये दूसरा उदहारण है जब राष्ट्रवादी नायक सुहेलदेव राजभर ने राष्ट्र की रक्षा के लिए २१ राजाओं को एकत्र किया और उनकी फ़ौज का नेतृत्व किया ! इस धर्मयुद्ध में श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव् राजभर का साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि।
सुहेलदेव राजभर का साम्राज्य उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में कौशाम्बी तक तथा पूर्व में वैशाली से लेकर पश्चिम में गढ़वाल तक फैला था ! भूराय्चा का सामंत सुहेलदेव राजभर का छोटा भाई भुराय्देव था जिसने अपने नाम पर भूराय्चा दुर्ग इसका नाम रखा ! श्री देवकी प्रसाद अपनी पुस्तक राजा सुहेलदेव राय में लिखते हैं कि भूराय्चा से भरराइच और भरराइच से बहराइच बन गया ! प्रो॰ के. एल. श्रीवास्तव के ग्रन्थ बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास के पृष्ठ ६१-६२ पर अंकित है – इस जिले की स्थानीय रीती रिवाजो में सुहेलदेव राजभर पाए जाते हैं !
इसप्रकार अधिकतर प्रख्यात विद्वानों ने अपने अध्यन के फलस्वरूप सम्राट सुहेलदेव को भर का शासक माना गया है ! कशी प्रसाद जयसवाल ने भी अपनी पुस्तक “अंधकार युगीन भारत” में भरो को भारशिव वंश का क्षत्रिय माना है ! अर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के वोलुम १ पेज ३२९ में लिखा है कि राजा सुहेलदेव भर वंश के थे ! राजा महाराजा सुहेलदेव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजभर महाराजा सुहेलदेव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते थे। महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्ीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्व प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। आइनये मसूदी के अनुसार – निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी का मिला जो राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कडे क़े राजा देव नारायन राजभर और मानिकपुर के राजा भोजपात्र राजभर ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से। इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण व भोजपत्रबडी वीरता से लड़ें।