प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक प्रो0 राजेन्द्र सिंह के अनुसार-
पालि में जो ” थेर/थेरी ” है, वही उत्तर भारत में ” श्री ” है, दक्षिण में ” तिरु ” है और लोक बोलियों में ” सिरी ” है।
नामों के अंत में ” श्री ” जोड़ने की परंपरा बौद्धों की है।
पालि साहित्य में पटचारा थेरी, सुभा थेरी, उसभ थेर, चित्तक थेर आदि में थेर/ थेरी नामों के अंत में जुड़ा है।
बाद में भी थेर/ थेरी का संस्कारित रूप श्री बौद्ध नामों के अंत में मिलेगा जैसे मंजू श्री, राज्य श्री।
बौद्धों की यह परंपरा काफी बाद में हिंदी में आई है। सुश्री वगैरह का लेखन तो आधुनिक काल के छायावाद युग में आया है।
अच्छी जानकारी मिली।
धन्यवाद।।
यथार्थ सत्य …
बहुत सुंदर जानकारी