यह जंगल में भागकर घास की रोटी खाने वालों की कहानी नहीं है.. न अस्सी घाव खाकर मुँह छुपाने वालों की दास्तान है.. यह रणछोड़, घुटनाटेकू या देश की जनता के साथ गद्दारी करनेवाले हिन्दू राजाओं की भी बात नहीं है.. यह ज़िन्दा इतिहास है शौर्य, पराक्रम और अपनी मिट्टी के लिए जान तक न्योछावर करनेवाले एक आदिवासी योद्धा की.. गोँडवाना के उस शूरवीर की, जिसने देशी ब्राह्मणी व्यवस्था के साथ मिलकर यहाँ अपना हुकूमत चलाने वाले अंग्रेज़ों के आगे कभी अपनी हार नहीं मानी और उनसे लोहा लेता रहा.. यह गौरवशाली बयान है उस मूलनिवासी शूरवीर की, जिसने अपनी धरती की आन-बान-शान को सबसे आगे रखा और खुद शहीद होकर भी गोंडवाना के मान को ऊँचा उठाया…यह हक़ीक़त है- गोँड महाराजा बाबूराव शेडमाके की, जिन्हें 21 अक्तूबर, 1858 को अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने के चलते अंग्रेज़ों ने फाँसी पर लटका दिया था.. सवर्ण इतिहासकारों ने इस महान घटना को दर्ज़ नहीं किया, लेकिन यह एक ज़िन्दा इतिहास है, जो हमेशा मौजूद रहेगी… बाबूराव शेडमाके के 157 वें बलिदान दिवस पर उन्हें हूल जोहार…
जय सेवा…. जय गोंडवाना…. जय भीम….