●अजय प्रकाश सरोज
फ़िल्म का विरोध इसलिए हों रहा कि फ़िल्म में पासी समाज को सीधे तौर पर अपमानित किया हैं। देश मे पासी जाति की संख्या करोड़ो में हैं। और इस जाति का सम्मान और स्वाभिमान से समझौता न करने का इतिहास रहा हैं। फ़िल्म उन्ही को केंद्र में रखकर बनाई गई हैं। जिसे दीन हीन दिखाकर परिस्थितिजन्य समझौतावादी की छवि बनाई गईं। यह संवाद दिल को चोट पहुचानें वाली हैं कि ‘ मेरी बेटियों को रात भर रखकर छोड़ देतें ! मार क्यों डाला ?
इसके साथ ही पासियों को फ़िल्म की कहानी और संवाद से हैं आपत्ति है ? फ़िल्म में 3 रुपये दिहाड़ी ज्यादा माँगने पर मजदूर गरीब पासी लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया और फिर उसे ‘ऑनर किलिंग ‘बताकर पिता को ही आरोपी बना दिया जाता हैं। जिसे वह मजबूर पिता सीधे से स्वीकार कर लेते हैं । पासियों के मामलें यह बात पचती नही ! क्योंकि पासी जाति का सामाजिक चरित्र प्रतिक्रियावादी हैं। और जिस बदायूं कांड की घटना को पासियों से जोड़ा गया उससे भी पासी समाज के लोगो को आपत्ति हैं ।
इसके अलावा फ़िल्म के शुरुआती में ही पुलिस वाला यादव ड्राइवर ,अपने अधिकारी द्वारा पानी मांगने पर कहता है कि सर ! यह पासियों का मोहल्ला हैं सुअर पालते है । अछूत है ये लोग , इनके हाथ का छुआ पानी हम नही पीते ?
घटना जाँच पड़ताल के दौरान ब्राह्मण आईपीएस अधिकारी द्वरा कायस्थ पीआरओ से खुद की जाति पूछना ? और फिर जाटव पुलिस कर्मी से यह संवाद कहलवाना की पीड़ितों की जाती हमारी जाती से अलग हैं वें पासी हैं , हम चमार हैं । हम पासी से काफी ऊपर आते हैं ? इनका छुआ तो हम खाते भी नही ! जबकि पश्चिम का जाटव खुद को चमार ही नही मानता, हैं भी नही ! और किसी भी पुस्तक में ऐसा वर्णन भी नही मिलता कि पासी ,चमार से निम्न हैं? न ही समाज में यह स्वीकार हैं।
पासी समाज के लोगों का कहना हैं यह कि यह फ़िल्म पासी समाज के गौरवशाली इतिहास को कलंकित करती हैं। इससे पासी समाज के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा । स्कूल कॉलेज में पासी बच्चों का मज़ाक बनेगा ! नई पीढ़ी अपनी जाति बताने में हीनता बोध करेगी, उसका मनोबल कमजोर होगा । जबकि उससे उसकी जाति हमेशा पूछी जाती रहेगी ।
भारत जातियों और धर्मों का देश हैं यह हमेशा बना रहेगा इस बात को ही ध्यान में रखकर भारतीय संविधान निर्माताओं ने आर्टिकल -15 को मजबूती से लिखा है कि किसी भी जाति ,धर्म ,समुदाय ,भाषा ,लिंग के आधार पर भेदभाव नही किया जाएगा। ” जबकि यह फ़िल्म
के करेक्टरों के साथ ही भेदभाव कर दिया गया ? ठाकुर को बलात्कारी और ब्राह्मण को न्यायिक ,यादव ड्राइवर , कायस्थ मुनीम अर्थात पीआरओ जाट रसोइयां बस जाटव को ,जाटव जी कहकर संबोधित किया गया हैं । क्या इतने भर से समानता का संदेश फ़िल्म में हैं ? या फिर जाटव जी द्वरा ठाकुर जाति के बलात्कार के आरोपी को थप्पड़ मारने से समाज मे बदलाव का संकेत हैं।
फ़िल्म को लेकर सोशल मीडिया पर कुछ पासी /दलित एक्टिविष्टो का वैचारिक विरोध रहा हैं उनका कहना है कि फ़िल्म में प्रतिक्रियावादी युवाओं का एनकाउंटर दिखाकर निर्देशक क्या सन्देश देना चाहतें हैं ? क्या यह दलित एक्टिविष्टो के अंदर डर पैदा करने की कोशिश नही ? फ़िल्म का विरोध इसलिए भी होना चाहिए कि दलित उत्पीड़न पर प्रतिक्रिया देनें वाले संगठनों के युवा नेताओँ को किस बात के लिए पुलिस पकड़ती हैं। उनका ज़ुर्म क्या बस इतना है की वें दलितों को समाजिक परिवर्तन के जरिये न्याय लेने की बात करतें हैं । या फिर राजनीतिक लाभ के लिए फर्जी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का विरोध कर रहें थें ? फिल्में समाज पर असर डालतीं हैं क्या यह फ़िल्म दलित एक्टिविष्टो पर नकारात्मक प्रभाव नही डालेगी रहीं हैं ?
इसका जवाब फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक से मंगा जाना चाहिए । अब बात शुरू हुई हैं तो सभी पक्षों की बातों को सुना जाना चाहिए , और उन्हें सन्तुष्ट भी करना चाहिए । तभी हमारे देश का लोकतांत्रिक ढांचा मज़बूत होगा।
लेखक :पत्रिका के संपादक हैं।
इलाहाबाद / प्रयागराज – 9838703861
Email: ap.saroj9838@gmail.com