झारखंड की जनक्रांति के अग्रदूत , धरती आबा के नाम से जाने जानेवाले , आदिवासियों के जल जंगल और जमीन पर अपने दावों को लेकर अंग्रेज और जमींदारो के खिलाफ एक बड़े आंदोलन ‘उलगुलान’का नेतृत्व करने वाले आदिवासी नायक भगवान बिरसा मुंडा जी का शहादत दिवस है , सबसे पहले हम उन्हें नमन करते है , फिर आइये उनके बारे में कुछ बात करते है ।
- बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया।
- जेल जाते समय बिरसा ने लोगों से आह्वान किया,“मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना,अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”
कौन थे बिरसा मुंडा?
आज धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि है. आज ही के दिन यानी 09 जून सन 1900ई. को उनका रांची के जेल में निधन हुआ था. उस वक्त बिरसा मुंडा की उम्र मात्र 25 साल थी. वे आदिवासियों के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्हें इतना सम्मान प्राप्त है. झारखंड में बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा दिया गया है. वे मुंडा जनजाति से आते थे और अंग्रेजों व जमींदारो के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था जिसे ‘उलगुलान’ कहा जाता है. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त युद्ध छेड़ा था, जिसके कारण अंग्रेज उन्हें किसी भी कीमत पर पकड़ना चाहते थे. नौ जनवरी 1899 को बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों ने अंग्रेजों से जमकर युद्ध किया. इसी दौरान वे एक जगह पर सो रहे थे तो कुछ विश्वासघातियों ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया
कुछ देर उन्हें बंदगांव और और खूंटी में रखा गया, फिर रांची लाया गया जहां नौ जून 1900 को उनका निधन हो गया. कहा जाता है कि हैजा से उनकी मौत हुई, लेकिन किसी को इसपर भरोसा नहीं कहा जाता है कि अंग्रेजों ने उनकी हत्या की थी.
- जीवन-परिचय
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर सन् 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले के अंतर्गत चालकाड़ के निकट उलिहातु गाँव में माता करमी हातू और पिता सुगना मुंडा के घर हुआ था।
- क्या था ‘उलगुलान’ ?
‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!’’
‘बिरसा मुंडा की याद में’ शीर्षक से लिखी आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा के कविता की ये पंक्तियां बिरसा मुंडा का आंदोलन ‘उलगुलान’ को समझने के लिए काफी है, उलगुलान यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष।
अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजी सरकार आदिवासियों पर अपनी व्यवस्थाएं थोपने लगी। अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वे गांव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी। और फिर शुरू होता है अंग्रेजों एवं तथाकथित जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण।इसी बीच बिरसा बाल अवस्था से किशोरावस्था और युवावस्था में पहुँचते हैं। वह आदिवासियों की दरिद्रता की वजह जानने और उसका निराकरण करने की उपाय सोचते हैं।आदिवासियों की अशिक्षा का लाभ लेकर गाँव के जमींदार, महाजन अनैतिक सूद-ब्याज में उलझाकर उनकी जमीन लेते रहते थे। आदिवासियों का कर्ज प्रतिदिन बढ़ता ही रहता। महाजन भी तो यही चाहते थे कि आदिवासियों का कर्ज बढ़े और खेत का पट्टा लिखवा लें फिर आदिवासी खेत में काम करें, पालकी उठायें, उनके नासमझ बच्चे खेत पर मुफ्त में पहरा भी देंगे। हुआ भी यही। आदिवासी अपनी ही जमीन पर गुलाम बन गये। वन के उत्पादों पर आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकारों पर पाबंदी, कृषि भूमि के उत्पाद पर लगान और अन्य प्रकार के टैक्स और इन सब के पीछे अंग्रेज अधिकारी, उनके देसी कारिन्दे-सामंत, जागीरदार और ठेकेदार, ये सब आदिवासियों के लिए दिकू (शोषक/बाहरी) थे।आदिवासियों की हालत बद् से बद्तर होती गई।बिरसा समझ गया शोषणकारी बाहरी इन्सान होता है और जब तक उसे नहीं भगाया जायेगा तब तक दुःखों से मुक्ति नही मिलेगी। अपने भाइयों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने ‘उलगुलान’ की अलख जगाई।
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। यह मात्र विद्रोह नहीं था। आदिवासी अस्मिता, स्वायत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था – उलगुलान।
साभार -फॉरवर्ड प्रेस