फैजाबाद । समाज के अंदर ब्याप्त अंधविश्वास को दूर कर शिक्षा की अलग जगाने वाले मानवतावादी सन्त सुकई दास की समाधि स्थल पोरा ,छतिरवा ,फैजाबाद में दो दिवसीय मेले व भण्डारे का समापन हो गया। उत्तर भारत के पेरियार कहे जाने वाले सुकई दास अंधविश्वास ,पाखण्डवाद ,ईश्वरवाद के धुर विरोधी थें। उन्होंने गाँव -गाँव जाकर सामाजिक बुराईयों को दूर करने का अभियान चलाया ।
प्रख्यात दलित चिंतक डॉ0 सीबी भारती के अनुसार जब दक्षिण भारत में पेरियार रामास्वामी नायकर देवी-देवताओं के विरूद्ध आंदोलन चला रहे थें । तब उसी समय ब्राह्मणवाद से जकड़े उत्तर भारत में सन्त सुकई दास जी दलितों/ पिछड़ो के घरों से देवी -देवताओं की मूर्तियों को खोदवाकर नहरों में फेंकवा रहें थें ।
उनका यह अभियान उत्तर प्रदेश के आसपास बिहार, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों में भी फैला था। लेकिन विशेष कर फैज़ाबाद , बाराबंकी, गोरखपुर, सीतापुर, लखनऊ, प्रतापगढ़, इलाहाबाद , रायबरेली, कौशाम्बी सहित अवध क्षेत्र में ख़ास प्रभाव डाला।
उनके अभियान के कुछ सूक्त इस प्रकार है –
“सन्त सुकई दास अभियान, सबको शिक्षा सबकों ज्ञान ।
सन्त सुकई दास का उपदेश ,बेटा – बेटी में नही कुछ भेद। ”
ऐसे ही अनेकों सूक्तियों के माध्यम से उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की ज्योति जलाने का काम किये । प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होंने स्कूली शिक्षा ग्रहण नही की ,लेकिन उन्हें हिन्दी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था।
अंधविश्वास, अशिक्षा तथा अमानवीय प्रथाओं के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन की अलख जगाने वाले महान संत पेरियार का जन्म अनुसूचित जाति के पासी उपजाति में हुआ था। 15 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने समाज में दिशा देने के लिए गृह त्याग कर दिया था । और आजीवन अविवाहित रहें ।
फैज़ाबाद के उनके अनुवाई राम सागर जी ने श्रीपासी सत्ता को बताया कि भण्डारे का आयोजन साहेब(सुकई दास जी ) द्वारा ही शुरु किया गया था। उनके परिनिर्वाण के बाद अनुवाईयों द्वारा प्रत्येक वर्ष एकादशी के दिन उनके समाधि स्थल पर दो दिवसीय भण्डारे व मेलें का आयोजन किया जाता है। जिसमें उनके अनुवाईयों का जमावड़ा होता है । इस आयोजन में आस पास के इलाकों से हजारों की संख्या में लोग भाग लेते है ।
सामाजिक परिवर्तन के नायक पेरियार सन्त सुकई दास का परिनिर्वाण लगभग सौ वर्ष की आयु में 14 जनवरी 1978 को उनके निवास स्थान -पोरा ,छतिरवा ,जनपद फैज़ाबाद में हो गया ।
इनका त्याग सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत कहे जाने वालें किसी भी महापुरुष से कम नही था। लेकिन सवर्ण कहे जाने वाले लेखकों नें इनके लिए क़लम तो नही चलाई जिसकी उम्मीद नही की जा सकती !
परंतु बाद के दलित व बहुजन लेखकों ने भी इनके त्याग की उपेक्षा की , बावजूद इसके सन्त जी का त्याग व किये गए कार्यो की छाप इतनी गहरी है कि आज भी उनके अनुवाई उनकी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार कर रहें है । इनके शिष्यों में आज के कई नामचीन सन्त शामिल है।
– अजय प्रकाश सरोज