12 जून आज विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया जाता है और इस दिन तमाम सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा बच्चों से काम न कराये जाने का संकल्प लिया जाता है और इस सम्बन्ध में राज्य और केंद्र में बैठे लोगों पीएम , सीएम और मंत्रियों द्वारा मीडिया (प्रिंट ,इलेक्ट्रॉनिक व सोशल) के माध्यम से कुछ आकर्षक सन्देश दे दिया जाता है , भारत मे बाल श्रम रोकने को लेकर तमाम कानून बनाये गए बावजूद इसके बाल श्रम में कोई कमी नही आई , भारत और बिहार में बाल मजदूरी की हकीकत क्या है आइये जानते है ।
देश के कुल बाल मजदूरों में 11 फीसद केवल बिहार में
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 2011 के एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में बाल श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है और इस मामले में भारत शीर्ष पर है और अगर बात बिहार की की जाए तो भारत के कुल बाल मजदूरों में से करीब 11 फीसदी अकेले बिहार में हैं। यह आंकड़ा चाइल्ड राइट्स ऐंड यू (CRY) ने दिए हैं। आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में 5 साल से 14 साल के बीच के करीब 40 फीसद बाल मजदूर ऐसे हैं जो कि अपना नाम तक नहीं लिख सकते हैं।
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 5 साल से 14 साल की उम्र के बीच के करीब 65 लाख बच्चे खेती और घरेलू कामों में मजदूरी कर रहे हैं। इस आयु वर्ग के बाल मजदूरों की तादाद कुल बाल मजदूरों का 64.1 फीसद है। सूत्र ने बताया, ‘प्रदेश स्तर पर मिले आंकड़े बताते हैं कि बिहार में काम करने वाले 61 फीसद बच्चे या तो कृषि क्षेत्र में मजदूरी करते हैं या फिर घरेलू कामों में उनसे मजदूरी कराई जाती है।’
जहा तक बच्चों के बीच निरक्षरता का सवाल है, तो पूर्णिया, कटिहार और मधेपुरा जिलों में इसका अनुपात 46 फीसद है। इसके बाद 44 फीसद की तादाद के साथ सीतामढ़ी और बांका का नंबर आता है। आंकड़ों के मुताबिक सीवान, भोजपुर, बक्सर और रोहतास 30 फीसद के साथ कुछ बेहतर स्थिति में हैं।
बाल श्रम गरीबी, आर्थिक-प्रवंचना एवं अशिक्षा का परिणाम
बाल श्रम मूलतः गरीबी, आर्थिक-प्रवंचना एवं अशिक्षा का परिणाम है। ऐसा भी कहा जाता है कि यह खंडित श्रम बाजारों एवं कमजोर स्तर के श्रम सशक्तिकरण का प्रतिफलन है। गरीबी बाल श्रम को जन्म देती है क्योंकि गरीब परिवार किसी भी संभव तरीके से जीने के लिए संघर्षरत रहते हैं। परन्तु यह भी समान रूप से सत्य है कि बाल-श्रम गरीबी को स्थायी बनाता है। बच्चे विनाशकारी/विकृत, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली शोषण व्यवस्था एवं गरीबी के दुष्चक्र के शिकार हो जाते हैं। भेदभाव, सामाजिक सुरक्षा की कमजोर एवं अक्षम व्यवस्था एवं गुणात्मक शिक्षा के अभाव में बच्चों के समक्ष कार्य करने के अलावा अन्य कोई बेहतर विकल्प नहीं रह जाता है। कामकाजी बच्चों के प्रति माता-पिता एवं समुदाय की मनोवृति के साथ-साथ इस अमानुषिक अस्तित्व से मुक्ति के साधन के रूप में शिक्षा के महत्व को नहीं समझने की सोच का भी बाल श्रम एवं कामकाजी बच्चों की बढ़ रही संख्या में योगदान है।