प्रकाशित हो रही है बृजमोहन की लिखित ”क्रांतिकारी मदारी पासी : एक ऐतिहासिक उपन्यास “

देश में स्वतन्त्रता संग्राम के बाद का सन्नाटा था। 1857 में हुए भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को गोरों ने गदर कहा था। गदर के दमन में हजारों स्वतन्त्रता सेनानी मृत्यु के घाट उतारे जा चुके थे या कैदी बना कर प्रताड़ित करने को जेलों में भेज दिए गए थे। जो बचे पाये थे, वे बेचैनी में गुमनामी जीवन व्यतीत कर रहे थे। अँग्रेजों ने जमीनें चापलूस जमींदारों के अधीन कर दी थीं। लगान वसूली के लिए जमींदारों को अपना एजेण्ट बना दिया था। किसानों और गरीबों पर जमींदारों के कारिन्दे कहर बरपा रहे थे। महाजनां, साहूकारों के शिकंजे ग्रामीणों पर बुरी तरह कसे थे। कभी लगान वसूली के नाम पर, कभी कर्जे और सूद के नाम पर उपज, खेत और पशुधन छीन लिए जाते थे। छोटे-मोटे जेवर, जो उनके पास होते थे, उन्हें भी छीन लेते थे। धौंसपट्टी से बेगार करा लेना, कमजोरों को प्रताड़ित करना आम बात थी। समर्थों के अत्याचारों से कमजोर वर्ग के लोग भयभीत रहते थे। ऐसी क्रूरता के चलते किसानों, गरीबों की स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं थीं। मौके-बेमौके उनकी इज्जत पर हमले का खतरा बना रहता था।
उन्हीं दिनों हरदोई जिले के एक गाँव में मदारी का जन्म हुआ। पिता का नाम मोहन पासी था और गाँव का नाम मोहनगंज मजरा इटौंजा, तहसील सण्डीला। कोई नहीं जानता था कि यही बालक, भविष्य में एक जुझारू जननायक बनकर उभरेगा और गरीबों, उपेक्षितों के मसीहा के रूप में मदारी पासी के नाम से जाना जाएगा। कालान्तर में उसकी मूर्तियाँ स्थापित होंगी, कलैण्डर छपेंगे… और, एक क्रान्तिवीर के रूप में उसका इतिहास पुनः लिखा जाएगा, क्योंकि उपेक्षावश इतिहास के पन्नों में उसे वह स्थान नहीं मिल सका था, जिसका वह हकदार था।
मोहन पासी गरीब किसान थे। उनके पास पर्याप्त भूमि नहीं थी। उन्हें प्रायः मजदूरी या नौकरी पर निर्भर होना पड़ता था। वह ऐसे कुटुम्ब से थे, जिन कुटुम्बों में जन्मकुण्डली नहीं बनवाई जाती थी। अतः मदारी की भी कुण्डली नहीं बनी। जब मदारी मशहूर हुए तो उनके जन्म का वर्ष अनुमानतः सन् 1860 ई0 आँका गया।

मदारी को बचपन से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रचलित प्रथा के अनुसार उनका विवाह कम उम्र में हो गया और दो बेटे, दो बेटियों के पिता बन गए थे। पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों के चलते कोई विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। कोई डिग्री या शैक्षणिक प्रमाणपत्र उनके पास नहीं थे। मदारी कोई कुशल वक्ता नहीं थे, परन्तु उनके अन्तःकरण से निकली सीधी, सच्ची और क्रान्तिकारी बातें लागों को बहुत प्रभावित करती थीं। उन्होंने हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह दूसरों को उर्दू पढ़ाया करते थे। उस समय हिन्दी की अपेक्षा उर्दू का चलन अधिक था।
होश सँभालते ही उनके सामने विसंगतियाँ रहीं। ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होने से देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। किसानों का दुतरफा दोहन हो रहा था। एक ओर भूमि सम्बन्धी अँग्रेजों के अहितकारी कानून थे तो दूसरी तरफ जमींदारों के अपने मतलब के गढ़े कायदे। अत्याचार और दमन करना अपना अधिकार समझते थे। दोहरी मार से किसान हैरान-परेशान थे। वह ऐसा समय था, जब समाज में छुआछूत, ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेदभाव, जमींदारों तथा साहूकारों की मनमानी का बोलबाला था। ऐसी कुरीतियों को देखते हुए उनके भीतर विद्रोह की भावना अंकिरत होने लगी और कालान्तर में प्रतिरोध की ज्वाला बन गई। उन्हें लगने लगा कि इन कुरीतियों से लड़ने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उनके व्यक्तित्व में अक्खड़पन आ गया और अन्यायी से लड़ने के लिए आत्मविश्वास उनमें कूट-कूटकर भर गया। अन्याय तो वह सह ही नहीं सकते थे, चाहे किसी के भी साथ हो। अन्यायी के खिलाफ हमेशा खड़े होने को तत्पर रहते थे। अगर लड़ाई भी लड़ना पड़े तो उसके लिए भी तैयार रहते थे। ग्रामीणों को जागृत करने और उनमें साहस भरने का काम उन्होंने आरम्भ कर दिया था।
अपने अभियान में मदारी यथासम्भव पैदल ही गाँव-गाँव घूमकर किसानों से मिलते थे। उनके दुख-सुख की बातें सुनते थे। सबको एक होकर रहने की बात समझाते थे। किसान उन्हें अपना सच्चा हितैषी मानकर उनसे जुड़ने लगे थे। उनसे जुड़ने वालों में छोटे किसान व भूमिहीन थे, जो जमींदारी प्रथा से त्रस्त थे और विभिन्न जाति-धर्म के थे। इस प्रकार हजारों लोग उनसे गहन रूप से जुड़ गए थे। बाद में उन्होंने एक घोड़ी पाल ली थी। घोड़ी पर दूर-दूर तक जाते थे। युवा अवस्था में जब वह एक प्रभावशाली किसान नेता के रूप उभर रहे थे, तब तक उनके समर्थक और सहयोगी खासे बढ़ चुके थे। जिनमें युवकों की संख्या अधिक थी। उन्हें ‘राजा’ कहा जाने लगा था।
देश में किसान सभाएँ गठित हुईं तो मदारी पासी किसान सभा से जुड़े और अपने क्षेत्र में उसका नेतृत्व किया। आरम्भ में महात्मा गाँधी से प्रभावित रहे और प्रतीकात्मक गाँधी टोपी धारण करने लगे। असहयोग आन्दोलन में जमकर भागीदारी करने लगे। अचानक गाँधीजी से मोहभंग हो गया और गाँधीजी की नीतियों से मुँह मोड़ लिया, लेकिन गाँधी टोपी पहनना नहीं छोड़ी। गाँधी टोपी उनकी वेशभूषा का आवश्यक हिस्सा बन गई थी।

अपना आन्दोलन सुचारु रूप से चलाने को मदारी को सुनिश्चित स्थान की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने अपने गाँव मोहनगंज को मुख्यालय बनाया और गाँव का नाम बदलकर मोहनखेड़ा रखा। कोई भी दुखिया मोहनखेड़ा जाकर अपना दुख कह सकता था। मोहनखेड़ा एक ऐसा ठिकाना बन गया था, जहाँ गुहार लगाने से न्याय की आशा की जा सकती थी। अटूट विश्वास लोगों के भीतर भरने लगा था।
वह जानते थे की अत्याचारों के खिलाफ बिना ताकत के नहीं लड़ा जा सकता। इसके लिए उन्होंने मोहनखेड़ा में ही एक अखाड़े की परिकल्पना की, जहाँ शरीर सौष्ठव और कुश्ती के दाँवपेंच का अभ्यास किया जा सके। इसके लिए उन्होंने नवयुवकों को आगे आने का आह्वान किया और अखाड़ा शुरू कर दिया। वह स्वयं मजबूत शरीर के थे और लाठी बहुत अच्छी चलाते थे। तलवार भाँजने में भी माहिर थे। वैसे धनुष-वाण उनका प्रिय अस्त्र था। धनुष और वाण हमेशा साथ रखते थे। उनका निशाना अचूक था। उनके तरकश का एक तीर ही किसी भी प्रतिरोध को खण्डित करने के लिए काफी था। अस्त्र-शस्त्र के प्रशिक्षण व अभ्यास की योजना भी उनके दिमाग में थी। सिर्फ लाठी-डण्डे से काम नहीं चल सकता था। हर एक के पास तो ढंग की लाठी तक नहीं थी। भाला, बल्लम, तलवार, तीर-कमान लोगों को सिखाना चाहते थे। लेकिन इन सबके लिए धन आवश्यक था।
अच्छा-खासा संगठन उन्होंने खड़ा कर लिया था। विरोधियों को सबक सिखाने का उनका अपना ढंग था। विषमताओं से निपटने को कमर कसे थे और सतर्क रहते थे। उन्होंने अपना विश्वसानीय खुफिया तन्त्र भी खड़ा किया, जिससे उपयोगी सूचनायें उन तक पहुँच सकें। सताया हुआ व्यक्ति भयभीत होकर भले ही अपनी पीड़ा व्यक्त न कर सके, परन्तु उन्हें मालूम पड़ जाता था। जिसकी मदद करना उनकी प्राथमिकता होती थी। वह ग्रामीणों में निर्भय वातावरण तैयार करना चाहते थे।
मदारी के विश्वसनीय साथी थे- जसकरन, गजोधर, नगई, शिवरतन, बचान, भैरव आदि व स्थानीय कार्यकर्ता। पवाँया के रघुनाथ शुक्ला भी उनसे जुड़ गए थे। मदारी के एक इशारे पर सभी जान की बाजी लगा सकते थे। वह अपने कार्यकर्ताओं को सहयोगी कहते थे। उनके सहयोग से ही उनका अभियान सक्रिय रहा, लोग जागृत हुए। जो बाद में आन्दोलन का रूप लेने लगा और एका आन्दोलन के नाम से जाना गया।

शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘क्रान्तिवीर मदारी पासी’ का अंश। लेखक: प्रसिद्ध कथाकार व उपन्यासकार बृज मोहन , झाँसी उत्तर प्रदेश

जरायमपेशा कानून से प्रभावित जातियों के मशीहा महाशय जी का आज 2 अक्टूबर को है जन्मदिन

महाशय मसूरियादीन पासी का इतिहास

एक ही दिन पर यानी आज के दिन २ अक्टूबर को तीन महान विभूतियों ने भारत देश में जन्म लेकर भारत माता को गौरवान्वित किया। गाँधी जी, लाल बहादूर शास्त्री और मसूरियादीन पासी जैसी अदभुत प्रतिभाओ का 2 अक्टूबर के ही दिन जन्म हुआ था । हम सभी के लिये ख़ुशी का पल है। सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेजों के शासन से से भारत देश को स्वतंत्र करा कर हम सभी को स्वतंत्र भारत का अनमोल उपहार देने वाले महापुरूष गाँधी जी को राष्ट्र ने राष्ट्रपिता के रूप में समान्नित किया। वहीं जय जवान, जय किसान का नारा देकर भारत के दो आधार स्तंभ को महान कहने वाले महापुरूष लाल बहादुर शास्त्री जी ने स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप में राष्ट्र को विश्वपटल पर उच्चकोटी की पहचान दिलाई। गांधी जी ,और लालबहादुर शास्त्री के विषय में अधिकतर सभी लोग जानते है, परंतु स्वतन्त्रता संग्राम में अहम् भूमिका निभाने वाले पासी समुदाय में जन्मे महाशय मसूरियादीन जी को नई पीढ़ी नहीं जानती । भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में मसूरियादीन जी ने इलाहाबाद का नेतृत्व किया था और करीब नौ वर्षो तक जेल में रहे। आजादी के बाद 1951 में प्रथम लोकसभा में फूलपुर से सांसद रहे । संघर्ष के दौरान नेहरू जी के साथ कई बार जेल गए। खास तौर पर महाशय जी ने पासी जाती पर अंग्रेजो द्वारा लगाये “जरायम पेशा कानून ” को हटवाने में अहम भूमिका निभाई थी।

खास बातें-

आज २ अक्टूबर के ही दिन भारत के तिन महापुरुषों गाँधी जी , लालबहादुर शास्त्री और पासी नायक मा. बापू मसुरियादीन पासी का जन्म हुआ था
पासी जाती सहित भारत के २०० जातियों पर लगे जरायम पेशा एक्ट को हटाने में अहम भूमिका निभाने वाले महाशय मसूरियादीन को नई पीढ़ी के बहुत कम लोग ही जानते है
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के बावजूद भी भारत के इतिहासकारों ने उन्हें वो सम्मान नही दिया जिसका वो हक़दार थे
माननीय बापू मसुरियादीन पासी

एक संक्षिप्त परिचय

जन्म तिथि – 02 अक्टूबर 1911

पूण्यतिथि -21 जुलाई 1978

माननीय साहब का जन्म आज के ही दिन २ अक्टूबर को हुआ था , भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में इनके इतने अहम योगदान के बावजूद भी भारत के जातिवादी और पक्षपाती इतिहासकारों ने उन्हें भारतीय इतिहास में वो जगह नही दिया जिनके वो हक़दार थे , भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में मसूरियादीन जी ने इलाहाबाद का नेतृत्व किया था ,और करीब नौ वर्षो तक जेल में रहे। संघर्ष के दौरान नेहरू जी के साथ कई बार जेल गए।

आजादी के बाद 1951 में प्रथम लोकसभा में फूलपुर से सांसद रहे । 1952 से लेकर 1967 तक संसद सदस्य रहे महाशय मसुरियादीन पासी समाज को अंग्रेजो द्वारा लगाए गए “जरायम पेशा एक्ट” को खत्म कराकर एक नया जीवन दान दिया । अखिल भारतीय पासी महासभा के अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने विभिन्न कुरूतियों में जकड़े पासी समाज को मुक्त कराने के लिए संघठित आंदोलन चलवाए ।

आज पासी समाज में जो समृद्धि थोड़ी बहुत दिखाई पड़ती है । उसमें बाबू जी के खून और पसीना शामिल है । लेकिन बाबू जी के बाद कि पीढ़ी निकम्मी हो गई वह केवल राजनीतिक लाभ लेने तक सीमित हो गई ,खास तौर पर महाशय जी ने पासी जाती पर अंग्रेजो द्वारा लगाये “जरायम पेशा कानून ” को हटवाने में अहम भूमिका निभाई थी।

क्या है जरायम पेशा कानून और क्रिमिनल ट्राइब एक्ट
अंग्रेजो ने भारत के उन तमाम जातियों , जनजातियो के एक समूह विशेष को प्रताड़ित करने के लिए एक विशेष कानून पास किया जिसे क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट या जरायम पेशा कानून का नाम दिया गया ,अंग्रज इस कानून का दुरूपयोग उन तमाम जाती के लोगो के विरुद्ध करते थे जो उनके खिलाफ बगावत करते थे ,उनके खिलाफ आन्दोलन करते थे , उनके बहकावे तथा प्रलोभन में नही आते थे तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे , पासी जाती भी इन जातियों में एक थी जिसने एक काफी समय तक क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट और जरायम पेशा एक्ट का मार झेला और अपना मान सम्मान और जमीन जायदाद सब खो दिया , इस एक्ट के तहत क्रिमिनल ट्राइब्स में आने वाले जाती के परिवार के बच्चो को भी पुलिस नही छोडती थी और उन्हें हमेशा थाने में रिपोर्ट करना पड़ता था ,यदि दलितों को चार वर्णों पर आधारित जाति व्यवस्था के उच्चताक्रम से उपजी हिंसा और बहिष्करण का शिकार होना पड़ा तो घुमंतू जातियां अंग्रेजी शासन का शिकार बनीं. 1871 के क्रिमिनल ट्राइब एक्ट से पूरे देश में दो सौ के लगभग समुदायों को अपराधी जनजाति में घोषित कर दिया गया इन दो सौ जातियों में पासी जाती भी शामिल थी भारत के सामाजिक और विधिक क्षेत्र में घुमंतू समुदायों के लिए यह एक सामूहिक हादसा था।

1924 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट का विस्तार किया गया और कई अन्य समुदाय इस कानून की जद में ले आए गए देश को 1947 में आजादी मिली, भारत का संविधान बनाया गया और सबको बराबरी का हक़ मिला कि वह वोट डाल सके. 1952 में उन समुदायों को विमुक्त समुदाय का दर्जा दिया गया जो क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के तहत अपराधी घोषित किए गए थे यह एक प्रकार से यह बताना था कि अमुक समुदाय अब अपराधी नहीं रह गए हैं! यह कानून की बिडंबना थी कि उन्हें एक पहचान से मुक्त कर दूसरी कम अपमानजनक पहचान से नवाज दिया गया 1959 में हैबीचुअल अफेंडर एक्ट ने पुलिस का ध्यान फिर उन्हीं समुदायों की ओर मोड़ दिया जो अब विमुक्त थे, यह सब आजाद भारत में हो रहा था

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गाँव गाँव पहुच बना रहा है बीकेआरपी – प्रमोद भारतीय

वचिंत समाज के लिए पूर्ण समर्पित है पार्टी

दिनांक 30 सितम्बर दिन रविवार को भारत क्रान्ति रक्षक पार्टी (बी.के.आर.पी.) की साप्ताहिक जन-जागरूकता एवं सदस्यता अभियान की बैठक पार्टी के प्रचारमंत्री राजेश कुशवाहा के निवास ग्राम सकरा,हेतापट्टी,झूँसी विधानसभा फूलपुर जिला इलाहाबाद में पार्टी के जिला अध्यक्ष दूधनाथ पासी के अध्यक्षता में सम्पन्न हुई ।

बैठक को सम्बोधित करते हुए जिला अध्यक्ष जी ने पार्टी के मुख्य उद्देश्यों के बारे में लोंगो को बताया और इस पार्टी में जोङकर भारत में फैले भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,बहन-बेटियों की सुरक्षा आदि को दूर करने के लिये संगठित होने का आह्वान किया।फूलपुर विधानसभा अध्यक्ष मुकेश भारतीया ने सभी लोगो से निवेदन किया कि साप्ताह में एक दिन पार्टी को अवश्य दे,जिससे आप और पार्टी का सामाजिक स्तर का विकास हो सके।शहर उत्तरी विधानसभा के अध्यक्ष विनोद सरोज ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए कहा कि बी.के.आर.पी. ही इन सब को दूर करने में सक्षम है,इसलिये पार्टी में आप सब जरूर जोङे और लोगो को भी जोङे।

बैठक का संचालन पार्टी के प्रवक्ता एवं विधि सलाहकर एडवोकेट प्रमोद कुमार भारतीया ने अपने भाषाण में लोंगो को बताया की पार्टी संकल्प है कि समाज के उन वचिंत लोंगो के लिये सदा तत्पर है की जो आज भी समाज के मुख्य धारा से नहीं जोङे है उन्हें आज से ही जोङकर उनका विकास करना है इसलिये पार्टी गाँव-गाँव जाकर वचिंत समाज के बारे में जानकारी प्राप्त करती है और जो जरूरत मंद मिलता है उसे पार्टी हर सम्भव मद्द करने का प्रयास करती है क्योंकि पार्टी वचिंत समाज के लिये सदैव पूर्ण समर्पित है।

अन्त में पार्टी के जिला प्रचार मंत्री राजेश कुशवाहा ने आए हुए लोगों का आभार प्रकट किया और लगभग तीन दर्जन से भी ज्यादा लोगों को आज पार्टी की सदस्यता दिलवाई।

बैठक में प्रमुख रूप से राजबली मौर्या,एम.लाल प्रजापति,चन्द्र पाल पटेल,छात्रनेता कमलेश पासी,लालमणि पासी,चन्द्र शेखर,कमलेश गौङ,संदीप पासी,बृजराज कुशवाहा,विवेक सोनी,प्रदीप गुप्ता आदि लोग उपस्थित रहे….✍
एडवोकेट प्रमोद कुमार भारतीया

परासिया में पूर्व विधायक ताराचंद बावरिया नें कराया बड़ा काम , जनता देगी इनाम

परासिया ,मध्यप्रदेश । आज मन्धान डैम की चर्चा करने का मन हुआ और जब बात मन्धान डैम की हो तो ताराचंद जी के बिना ये चर्चा अधूरी है। मुझे आज भी याद है मई जून की तपती दुपहरी में नंगे पैर चलकर जो उन्होंने तप किया वो हम सभी ने देखा है किस तरह पैर में छाले आने के बाद भी उन्होंने अपनी यात्रा नही रोकी । कांग्रेस की सरकार में मंत्री रहें यंहा के सांसद कमलनाथ लगातार अड़ंगे अड़ाते रहे। लेकिन तारा भैया ने हिम्मत नही हारी अपना संघर्ष करते रहे ।

ये उन्ही के तप और संघर्ष का परिणाम है कि मन्धान डैम जो लगातार अडंगो की भेंट चढ़ रहा था अब बनकर तैयार है । ये तारा भैया की ही मेहनत का परिणाम है मन्धान डैम जो उनका ही नही पूरे परासिया का सपना था जिसे हमारे लाडले पूर्व विधायक तारा भैया ने सच कर दिखाया

अब मन्धान डैम पूरी तरह बनकर तैयार है और परासिया की पानी की समस्या जो पिछले दिनों काफी विकराल रूप ले चुकी थी उससे हमे निजात मिलेगा इस डैम को बनाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ तारा भैया को जाता है तारा भैया को इस उपलब्धि के लिए जितने बार भी धन्यवाद दूँ ,कम होगा ।

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने हमेशा परासिया के विकास और पार्टी को प्राथमिकता दी हमारे प्यारे तारा भैया को दिल से प्रणाम और माननीय मुख्यमंत्री का आभार जो उन्होंने इस डैम को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

परासिया विधानसभा में अभी कांग्रेस के विधायक जरुर है लेकिन नजदीकी चुनाव में जनता के लिए समर्पित नेता ताराचंद बावरिया ही लोगों की पसन्द बने हुए हैं। ऐसा विश्वास है कि इस बार जनता उनके संघर्ष का इनाम जरूर देगी।

(साभार: एक समर्थक की दीवार से.)

इविवि छात्रसंघ चुनाव में शैलेश पासवान अध्यक्ष ,महामंत्री पद पर नीलम सरोज प्रत्याशी

इलाहाबाद विवि छात्रसंघ चुनाव के लिए आइसा ने उतारे प्रत्याशी

इलाहाबाद। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव 2018 में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने आम सभा बुलाकर प्रत्याशियों की घोषणा की। अध्यक्ष पद के लिए शैलेश कुमार पासवान (एमए अंग्रेजी), उपाध्यक्ष के लिए शिवा पाण्डेय (एम म्यूजिक), महामंत्री के लिए नीलम सरोज (मॉस कॉम) व उपमंत्री पद के लिए सोनू यादव (एमए अंग्रेजी) को घोषित किया गया।

आइसा प्रदेश सचिव सुनील मौर्य ने कहा कि भाजपा को केंद्र सरकार में आए हुए चार साल से ज्यादा हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इलाहाबाद की रैली में घोषणा की थी कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो इविवि की आन बान शान लौटाना उनका प्राथमिक कर्तव्य होगा, लेकिन चार सालों में विश्वविद्यालय की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं।

अध्यक्ष पद के उम्मीदवार शैलेश पासवान ने कहा कि विश्वविद्यालय को सरकारी छात्र संघठनों ने अकूत पैसे और बाहुबल के प्रदर्शन का अड्डा बना रखा है जिसके चलते आम छात्रों का छात्रसंघ में आना बहुत मुश्किल हो गया है। ऐसे में छात्रों की मूलभूत समस्याओं पर चुनाव में बात नहीं हो पाती। छात्रसंघ को सत्ता की सीढ़ी के बतौर नहीं बल्कि संघर्ष और सृजन का मंच बनाना होगा।

आइसा से उपाध्यक्ष पद की उम्मीदवार शिवा पांडेय ने कहा कि किसी छात्रा का इस परिसर में चुनाव लड़ना किसी आजादी आंदोलन की लड़ाई से कम नहीं है। छात्राओं की सुरक्षा के लिए विशाखा गाइडलाइन के अनुसार कैम्पस में GSCASH की मांग को सुनिश्चित करने की लड़ाई आइसा लड़ता रहा है और लड़ेगा।

महामंत्री पद की उम्मीदवार नीलम सरोज ने कहा कि छात्रसंघ महामंत्री का पद अमूमन बाहुबल-धनबल से परिपूर्ण लोग लड़ते हैं लेकिन इस मानसिकता को तोड़ना होगा। छात्राओं के लिए कॉमन हॉल, सभी विभागों में वाशरूम की सुविधा के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी।

उपमंत्री पद के प्रत्याशी सोनू यादव ने कहा कि छात्रसंघ में आम छात्रों की भागीदारी व प्रतिनिधित्व ही विश्वविद्यालय की समस्याओं से लड़ सकता है। होर्डिंग और काफिलों वाले नेता बस अपना कैरियर संवारने, और ठेकेदारी के लिए चुनाव लड़ते हैं। सभा में आइसा के प्रदेश अध्यक्ष अंतस सर्वानंद, इविवि इकाई सचिव यश सिंह, शक्ति रजवार, पूजा सिंह, देवेश मिश्रा, हिमांशु, शहरयार खान, रणविजय विद्रोही SFI के राज्य सचिव विकास स्वरूप, सौरभ, CYSS के इविवि इकाई अध्यक्ष सद्दाम, पवन गुप्ता, फैज़ान, मीडिया प्रभारी रणविजय सिंह उपस्थित रहें।

दरियादिली : ‘शिक्षक सम्मान ‘में मिलें पैसे को केरल के बाढ़ पीड़ितों को किया दान

●राजेश कुमार भारती ने बढ़ाया पासी समाज का मान

शिक्षक दिवस के मौके पर बिहार सरकार द्वारा 17 शिक्षकों को “राजकीय शिक्षक सम्मान ” दिया गया ।
जिसमे पासी समाज से एक मात्र शिक्षक राजेश कु.भारती को यह सम्मान प्राप्त हुआ ।

राजेश भारती मूलतः बिहार के नवादा जिले के सिरदला प्रखंड के रहने वाले है वर्तमान में उत्क्रमित मध्य विद्यालय , हेमजाभारत(नवादा) में कार्यरत है । बिहार के शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में पटना के कृष्ण मेमोरियल हॉल में आयोजित सम्मान समारोह में ,बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कु.मोदी द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया , शिक्षा के क्षेत्र में उनकी प्रेरणा एवं विशिष्ठ सेवा हेतु उन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ ।

बड़ी बात यह है कि इन्होंने पुरस्कार राशि केरल के बाढ़ पीड़ितों को दान कर दिया। सोशल मीडिया पर इनके इस कदम की सराहना हो रहीं है । यूजर्स के कहना है कि ऐसा कलेजा अनुसूचित जाति के लोगों का ही हो सकता है।

राजेश भारती अनुसूचित जाति शिक्षक कल्याण संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उत्क्रमित मध्य विद्यालय हेमजाभारत, प्रखंड- सिरदला के नियोजित शिक्षक हैं।
पासी समाज सहित शुभचिंतको ने इन्हें बधाई दी,और उज्ज्वल भविष्य की कामना कर रहें है ।

पासी समाज के राजनैतिक हालात पर चिंतक बैठक सम्पन्न

1 सितंबर 2018 को इलाहाबाद में पासी समाज के बुद्धिजीवी व सामाजिक स्वजातीय बंधुओं द्वारा पासी समाज के सामाजिक और राजनीतिक स्थिति के ऊपर एक परिचर्चा आयोजित की गई ।

इस परिचर्चा में मुख्य अतिथि इलाहाबाद के सीनियर नेत्र सर्जन डॉक्टर ए0के0 कौल जी उपस्थित रहे उन्होंने पासी समाज को शिक्षित होकर समाज के लोगों को जागरुक करने की बात कही साथ ही समाज को एकजुट करने के लिए प्रयासरत रहने के अपने अनुभव साझा किए। अध्यक्षता कर रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉक्टर आलोक प्रसाद जी ने समाज की ऐतिहासिक और वर्तमान परिस्थितियों को रेखांकित किया और बताया कि समाज में सामाजिक और राजनीतिक कार्यो में एक काल्पनिक अंतर है इसलिए हम सभी को इन दोनों दिशा में मिलकर के काम करना होगा।

इस परिचर्चा में एडवोकेट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अजीत भाष्कर जी ने संचालन करते हुए कहा कि इस समाज में आज भी पासी होने के नाते सभी सरकारी विभागों में और साथ ही गांव में किसानों मजदूरों का शोषण और अत्याचार निरंतर जारी है ऐसा होने पर उन्हे न्याय दिलाने के लिये अधिवक्ताओं की टीम के साथ घटना स्थल पर जा कर उन्हे मदद देने का कार्य कर रहें हैं और आगे भी करते रहेंगे।
इस परिचर्चा में आकस्मिक रुप से ना आ पाने पर *दिल्ली में कमर्शियल पायलट Go Air Sr. Commander श्री ब्रिजेश चंद्र लाल जी* ने वीडियो कॉन्फरेंस से अपनी बाते रखीं।

आगे सभी उपस्थित सभी स्वजाति बंधुओं ने अपने अनुभव और विचार रखें और अन्त में कुछ प्रस्ताव पारित किए गए जिसमें पासी समाज की पत्रिका का प्रकाशन, सामाजिक संगठन और राजनीतिक संगठन निर्माण, कैडर गठन के साथ ही सामाजिक और शैक्षिक जागरूकता के लिए प्रयास शुरू करने का प्रस्ताव पारित किया गया।

इस परिचर्चा में मुख्य रूप से पूर्व ADM अभय राज, जनपद न्यायालय के चिकित्साधिकारी डॉ अशोक रंजन, डॉक्टर शैलेश रावत, डॉ गणेश प्रसाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट के एडवोकेट चंद्रप्रकाश निगम, विष्णु भगवान, वीरेंद्र कुमार, COD के कन्हैया लाल, प्रदीप कुमार, एलआईसी मैनेजर पारसनाथ, सहायक अध्यापक अतुल कुमार, रामप्रताप सरोज, सिचाईं विभाग के अजय कुमार, अभिषेक कुमार, जितेंद्र कुमार* तथा कई संख्या में पासी समाज के बुद्धिजीवी उपस्थित रहे।

फूल बेचती बालिका को देख कनार्टक के मुख्यमंत्री का दिल पिघला

कनार्टक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी जनता की फरियाद सुनने रामनगर की ओर जा रहे थे,वो हाईवे पर पहुँचे ही थे कि उन्होंने देखा एक छोटी सी बच्ची प्लास्टिक को टोकरी में फूल रखकर बेच रही है, और वो बच्ची राहगीरों से कार में बैठे लोगों से पूछ रही है कि फूल लोगे साहब, मुख्यमंत्री ने अपनी कार रोककर उस बच्ची को अपने पास बुलाया उससे बात की और उसके परिजनों के बारे में पूछा और उसकी सभी जानकारी एकत्र कर अपने अधिकारियों को निर्देश दिया कि इस बच्ची के पिता को उनसे मिलाये, इस बच्ची का नाम स्कूल में लिखाये और इसके परिवार की आर्थिक सहायता करें

फूल बेचने बाली फूल सी बच्ची को इससे बेहतर तोहफा शायद और दूसरा कुछ नही हो सकता, जिसमे खुद उसे शिक्षा का तोहफा मुख्यमंत्री ने प्रदान किया।यह ख़बर सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बना हुआ। यूजर्स मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता की तारीफ कर रहे है।

जगजीवन राम पर पेरियार ललई यादव ने की थीं आपत्ति जनक टिप्पणी..पढ़े पूरा लेख

पेरियार ललई सिंह यादव,जन्म दिन (1 सितम्बर) पर विशेष

पढ़ाई के दौरान ही मैं डा. आंबेडकर और बौद्धधर्म के मिशन से जुड़ गया था। आस-पास के क्षेत्रों में जहाँ भी मिशन का कार्यक्रम होता, मैं भी उसमें भाग लेने चला जाता था। 11 मार्च 1973 को दिल्ली के रामलीला मैदान में तिब्बत के दलाई लामा ने लगभग बीस हजार दलितों को बौद्धधर्म की दीक्षा दिलाई थी। उन दीक्षा लेने वालों की भीड़ में एक मैं भी था।

पहली बार मैंने पेरियार ललई सिंह को वहीं पर देखा था। आसमानी कुर्ता-पाजामे में एक पतला-दुबला आदमी कड़क आवाज में किताबें बेच रहा था। यही पेरयार ललई सिंह थे, जो उस समय तक ‘सच्ची रामायण’ का मुकदमा जीतकर दलित-पिछड़ों के हीरो बने हुए थे।

मैं उनकी किताबें पढ़ चुका था, पर उन्हें देख पहली बार रहा था। उन्हें बहुत से लोग घेरे हुए थे, जो स्वाभाविक भी था। वे सबके प्रिय लेखक थे, जिन्होंने 1967 में बौद्धधर्म अपनाने के बाद ‘यादव’ शब्द हटा लिया था।

उस दौर के दो ही हमारे प्रिय लेखक थे-चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु और पेरियार ललई सिंह यादव, जिन्होंने हमारी पूरी सोच को बदल दिया था। उस समय तक मेरी एक किताब ‘बुद्ध की दृष्टि में ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा’ छप चुकी थी, पर लेखक के रूप में मैं अनजाना ही था।

1978 में मेरी दूसरी किताब ‘डा. आंबेडकर बौद्ध क्यों बने?’ छपी, और उसी दौरान मैंने रामपुर से ‘मूक भारत’ पाक्षिक का सम्पादन आरम्भ किया।

उसी समय मैंने ललई सिंह जी को अपनी किताब और ‘मूक भारत’ का अंक भेजा। प्रवेशांक में बाबू जगजीवन राम की प्रशंसा में लेख था, जिसकी पूरी कहानी मैं बाबूजी पर अपने संस्मरणात्मक लेख में दे चुका हूँ। लेख पढ़कर तुरन्त ललई सिंह जी का अशोक पुस्तकालय, झींझक, कानपुर से 22/2/80 का पत्र आया। पत्र में लिखा- ‘मूक भारत’ निकला। 26.1.80 अंक पढ़ा।

सफलता की कामना।’ उसके बाद कुछ अपनी बीमारी के बारे में लिखा कि आॅंखों में मोतियाबिन्द है, कुलंग बात है। भारी दवा कराई। कोई लाभ नहीं। वैद्यों, डाक्टरों सबसे घृणा हो गई है। इसके बाद बाबूजी पर एक बेबाक टिप्पणी- ‘यह लोग कंजरों के पालतू कुत्तों की तरह मालिकों के इशारों पर भूॅंकने वाले हैं।

श्री जगजीवन राम भी ऐसे ही भूका करते थे, करते हैं। इन लोगों व बाबू जगजीवन राम का काम केवल इतना है कि जब इन्हें जान पड़े, कि अछूत जनता का ध्यान आकर्षण करना है, तब एक भाषण अछूतों की परेशानी का लम्बा सा झाड़ दिया। वाह! वाह!! प्राप्त की। फिर चुप।

वह अपने भाषण को कार्य रूप में परिणित नहीं कर सकते, न पार्टी में रहकर अपने आकाओं से परिणित करा सकते।

बाबू जगजीवन राम अछूत हैं, अछूत ही मरेंगे। यही दशा श्री रामधन व श्री मोती राम, कानपुर की है, रहेगी।’ पत्र में आगे और भी तीखा है। कुछ बातें अम्बेडकर भवन, नई दिल्ली और अटलबिहारी बाजपेई के बारे में भी लिखी गई थीं, पर ईंक धुल जाने से वह पढ़ा नहीं जा पा रहा है। स्याही के कलम की लिखाई मिट्टी के घर में 30-35 साल में खराब होनी ही थी।

‘मूक भारत’ में श्री रामधन का वक्तव्य और श्री मोतीराम शास्त्री का साक्षात्कार भी छपा था। पर यह मोतीराम शास्त्री कानपुर के नहीं, चन्दौली (बनारस) के बौद्ध विद्वान थे।इसके बाद ललई सिंह जी से मेरी दूसरी मुलाकात अक्टूबर 1980 में कांशीराम के बामसेफ के अधिवेशन में नई दिल्ली में हुई।

यह बहुत ही महत्वपूर्ण भेंट थी, जिसने मुझे एक बड़ी साहित्यिक जिम्मेदारी थी। इसका विस्तृत उल्लेख मैंने अपनी किताब ‘धम्मविजय’ (अक्टूबर, 1981) के प्रकाशकीय में किया है। यहाँ मैं उसी से नकल करता हूँ–
‘बामसेफ के अधिवेशन में, जो अक्टूबर‘ 80 में हुआ था, पेरियार श्री ललई सिंह ने मुझे एक पुस्तक दिखाते हुए कहा, ‘यह ‘कालविजय’ है।

इसमें जो पंक्तियां लाल स्याही से रेखांकित हैं, उनको पढ़ जाओ।’ मैं आदेश नहीं टाल सका, पुस्तक हाथ में ली। शुरु के पृष्ठ पलटे- सम्राट अशोक के जीवन पर आधारित एक ऐतिहासिक नाटक; लेखक श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र।

मैं कुतूहल में पूरे नाटक की रेखांकित पंक्तियां पढ़ गया। पढ़कर तो मैं अवसन्न रह गया। लगा, जैसे किसी ने एक साथ कई हथौड़ों से सिर पर प्रहार किया हो। एक स्वच्छ, सुगन्धित और पवित्र वाटिका का उजाड़- मेरा अन्र्तमन विद्रोही हो गया। इसी विद्रोह-भाव से मैंने श्री ललईसिंह को उत्तर दिया, ‘यह बौद्धधर्म को कलंकित और अपमानित करने का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है।

किसकी शैतानियत है इसके पीछे?’ किन्तु उन्हीं से जब यह मालूम हुआ कि यह पुस्तक आगरा और रूहेलखण्ड विश्वविद्यालयों में हिन्दी कक्षाओं में पढ़ाई जा रही है, तो फिर, सचमुच सबकुछ आँखों के आगे स्पष्ट हो गया।
‘श्री ललई सिंह की हार्दिक इच्छा थी कि ‘कालविजय’ के प्रकाशन और उसकी बिक्री पर प्रतिबन्ध लगे, और उसके लेखक के विरुद्ध 124 ए के अन्तर्गत मुकदमा चले। इसमें सन्देह भी नहीं कि श्री ललई सिंह और श्री जगन्नाथ आदित्य ने इस दिशा में काफी संघर्ष किया।

उनके प्रयास से देश भर से लाखों ज्ञापन भारत सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा प्रदेश के राज्यपाल को भेजे गए, और आगरा में (8-9 मार्च 1980 को) चक्कीपाट पर बालासाहेब प्रकाशराव आंबेडकर के नेतृत्व में एक विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘कालविजय’ को जब्त कराने के सम्बन्ध में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया गया। इधर भिक्षु संघ भी ‘कालविजय’ के विरुद्ध प्रधानमन्त्री से मिला और अपना लिखित विरोध प्रदर्शित किया।’ मेरे लिए यह पहला अवसर था, जब मैं इतने बड़े सम्मेलन का साक्षी बना था।

‘कालविजय’ के खिलाफ पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन हुआ था, जिसका एकमात्र श्रेय श्री ललई सिंह को ही जाता था।

मैंने उन्हें इस सफलता के लिए बधाई दी। उसके उत्तर में उन्होंने 2 मार्च 1981 को मुझे लिखा- ‘क्या आप समझते हैं, कि ‘कालविजय’ की जब्ती का प्रोपेगण्डा इतने से ही जब्त हो जाएगा। आप बच्चे हैं। कुरफुती कुरफुती है। शक्तिशाली की इच्छा का नाम न्याय है।

यदि असली न्याय, न्याय होता, तो मैं सच्ची रामायण की चाभी, आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश, हिन्दू संस्कृति में वर्णव्यवस्था और जातिभेद क्यों हार जाता?’
अन्त में मैंने ‘कालविजय’ का जवाब लिखने के अपने विचार से ललई सिंह जी को अवगत कराया, और लगभग दो महीने के प्रयास से मैंने तीखी आलोचना के साथ ‘कालविजय’ का जवाब ‘धम्मविजय’ के रूप में पूरा किया। यह किताब अक्टूबर 1981 में छपी और पहली प्रति मैंने ललई सिंह जी को भेजी।

किताब देखकर वह बहुत खुश हुए, बोले, यह काम तुम ही कर सकते थे। पर उन्होंने यह भी कहा कि इस का नाम मुझे ‘सम्राट अशोक का धम्मविजय’ रखना चाहिए था। उन्होंने इसकी सौ से भी ज्यादा प्रतियाॅं बेचीं।

अशोक पुस्तकालय के सूची पत्र में ‘धम्मविजय’ का नाम आज भी दर्ज है। डा. डी. आर. जाटव ने लिखा कि ‘कालविजय’ का जवाब ‘धम्मविजय’ ही हो सकता था।’ इस किताब को सबसे ज्यादा बौद्ध भिक्षुओं ने खरीदा था।

यह उस समय उनकी सबसे प्रिय पुस्तक थी। शायद ही कोई भिक्षु होगा, जिसके पास ‘धम्मविजय’ न होगी। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद भदन्त शान्त रक्षक ने तो एक लम्बे लेख में मुझे ‘श्रमण संस्कृति के रक्षक’ की उपाधि दी थी।
इसी दौरान मैं सरकारी सेवा में लखनऊ चला गया था।

उसके बाद फिर कभी ललई सिंह जी से मिलना नहीं हो सका। सरकारी सेवा की उलझनों और व्यस्तताओं के कारण मिशन में भी मेरी सक्रियता खत्म हो गई थी। लेकिन ललई सिंह जी का अमिट प्रभाव मेरे मानस पर हमेशा बना रहा।

सत्तर के दशक में, बहुजन नेता और विचारक रामस्वरूप वर्मा ने दलित-पिछड़ों में ब्राह्मणवाद के उन्मूलन के लिए अर्जक विचारधारा चलाई थी। उस समय वर्मा जी उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मन्त्री थे।

उन्होंने लखनऊ से ‘अर्जक’ अखबार निकाला था, जो साप्ताहिक था और बाद में इसी नाम से राजनीतिक पार्टी भी बनाई थी। इसी अर्जक आन्दोलन से ललई सिंह जी भी जुड़ गए थे। समान वैचारिकी ने उन्हें और वर्मा जी, दोनों को एक-दूसरे का घनिष्ठ साथी बना दिया था।

वर्मा जी ने ललई सिंह जी के निधन पर एक मार्मिक संस्मरण उनके अभिन्न सहयोगी जगन्नाथ आदित्य को सुनाया था, जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी किताब में इस प्रकार किया है-
‘वह हमारे चुनाव प्रचार में भूखे-प्यासे एक स्थान से दूसरे स्थान भागते। बोलने में कोई कसर नहीं रखते। उनके जैसा निर्भीक भी मैंने दूसरा नहीं देखा।

एक बार चुनाव प्रचार से लौटे पैरियर ललई सिंह जी को मेरे साथी ट्रैक्टर ट्राली से लिए जा रहे थे। जैसे ही खटकर गाँव के समीप से ट्रैक्टर निकला, उन पर गोली चला दी गई। संकट का आभास पाते ही वह कुछ झुक गए, गोली कान के पास से निकल गई।

लोगों ने गाँव में चलकर रुकने का दबाव डाला। किन्तु वह नहीं माने। निर्भीकता से उन्होंने कहा, ‘चलो जी, यह तो कट्टेबाजी है, मैंने तो तोपों की गड़गड़ाहट में रोटियां सेकीं हैं।’
ललई सिंह जी ने सही कहा था। वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे।

पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, जो ब्रिटिश हुकूमत में जुर्म था, वह दो साल बाद बरखास्त कर दिए गए। उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए।

1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की, और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने। इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिस कर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े।

जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर आफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी। ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही; किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था। लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया।

‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी। यदि वह प्रकाशित हुई होती, तो उसकी तुलना आज महात्मा जोतिबा फुले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती।

श्री जगन्नाथ आदित्य ने अपनी पुस्तक में ‘सिपाही की तबाही’ से कुछ अंशों को उद्धरित किया है, जिनमें सिपाही और उसकी पत्नी के बीच घर की बदहाली पर संवाद होता है। अन्त में लिखा है- ‘वास्तव में पादरियों, मुल्ला-मौलवियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नर्क नाम की बात बिल्कुल झूठ है। यह है आँखों देखी हुई, सब पर बीती हुई सच्ची नरक की व्यवस्था सिपाही के घर की।

इस नर्क की व्यवस्था का कारण है-सिन्धिया गवर्नमेन्ट की बदइन्तजामी। अतः इसे प्रत्येक दशा में पलटना है, समाप्त करना है। ‘जनता पर जनता का शासन हो’, तब अपनी सब माँगें मन्जूर होंगी।’

इसके एक साल बाद, ललई सिंह ने ग्वालियर पुलिस और आर्मी में हड़ताल करा दी, जिसके परिणामस्वरूप 29 मार्च 1947 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला, और उन्हें पाँच साल के सश्रम कारावास की सजा हुई। 9 महीने जेल में रहे, और जब भारत आजाद हुआ, तब ग्वालियर स्टेट के भारत गणराज्य में विलय के बाद, वह 12 जनवरी 1948 को जेल से रिहा हुए।
1950 में सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद वह ग्वालियर से अपने गाँव झींझक आ गए और आजीवन वहीं रहे। अब वह समाज को बदलने की दिशा में कार्य कर रहे थे।

इसके लिए साहित्य को माध्यम बनाया। उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा था।

नाटक लिखने की प्रतिभा उनमें अद्भुत थी, जिसका उदाहरण ‘सिपाही की तबाही’ में हम देख चुके हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि उनके लेखन की शुरुआत नाटक विधा से ही हुई थी। उन्होंने पाँच नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक। ‘सन्त माया बलिदान’ नाटक सबसे पहले स्वामी अछूतानन्द जी ने 1926 में लिखा था, जो अनुपलब्ध था। ललई सिंह जी ने उसे लिखकर एक अत्यन्त आवश्यक कार्य किया था। गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं थीं- (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? इसके सिवा उनके राजनीतिक-सामाजिक राकेट तो लाजवाब थे।

यह साहित्य हिन्दी साहित्य के समानान्तर नई वैचारिक क्रान्ति का साहित्य था, जिसने हिन्दू नायकों और हिन्दू संस्कृति पर दलित वर्गों की सोच को बदल दिया था।

यह नया विमर्श था, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था। ललई सिंह के इस साहित्य ने बहुजनों में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना पैदा की और उनमें श्रमण संस्कृति और वैचारिकी का नवजागरण किया।
इसी समय (सम्भवतः 1967 में) पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर एक अल्पसंख्यक सम्मेलन में लखनऊ आए थे। उस काल में वह पूरे देश के बहुजनों के क्रान्तिकारी नेता बने हुए थे।

ललई सिंह जी भी उनसे बेहद प्रभावित थे। वह उनके सम्पर्क में आए और उन्होंने उनसे उनकी पुस्तक ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ को हिन्दी में लाने के लिए अनुमति माँगी। लेकिन नायकर जी अपनी तीन अन्य किताबों के साथ इसके अनुवाद की अनुमति भी चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु जी को दे चुके थे।

इसलिए नायकर जी ने ललई सिंह जी से उस पर कुछ समय बाद विचार करने को कहा। जिज्ञासु जी ने उनकी तीन पुस्तकें, जिनमें पहली, उनका संक्षिप्त जीवन परिचय (ए पेन पोट्रेट), दूसरी ‘फिलोसोफी’ (भाषण) और तीसरी, सोशल रिफार्म एण्ड रेवोलूशन’ (जिसके अंग्रेजी लेखक ए. एम. धर्मालिंगन थे), को श्री दयाराम जैन से अनुवाद कराकर एक ही जिल्द में ‘पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर’ नाम से बहुजन कल्याण माला के अन्तर्गत 1970 में प्रकाशित करा दिया था। पर, ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का अनुवाद वह नहीं करा सके थे। अन्ततः, नायकर जी ने 1 जुलाई 1968 को पत्र लिखकर ललई सिंह को ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ के अनुवाद और प्रकाशन की अनुमति प्रदान कर दी।

उन्होंने अंगे्रजी में लिखा था- ‘जिन्हें पहले अनुमति दी थी, वह उसे अभी तक प्रकाशित नहीं कर सके हैं, इसलिए आपको अनुमति दी जाती है।

1968 में ही ललई सिंह जी ने ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद करा कर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कर दिया। छपते ही सच्ची रामायण ने वह धूम मचाई कि हिन्दू धर्मध्वजी उसके विरोध में सड़कों पर उतर आए।

तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने दबाव में आकर 8 दिसम्बर 1969 को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में किताब को जब्त कर लिया। मामला हाईकोर्ट में गया।

वहाँ एडवोकेट बनवारी लाल यादव ने ‘सच्ची रामायण’ के पक्ष में जबरदस्त पैरवी की। फलतः 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए. कीर्ति ने जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी जब्तशुदा पुस्तकें वापिस करे और अपीलान्ट ललई सिंह को तीन सौ रुपए खर्च दे।
नायकर जी ने ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ में अपने विचार के समर्थन में सन्दर्भ नहीं दिए थे।

उस अभाव को पूरा करने के लिए ललई सिंह ने ‘सच्ची रामायण की चाबी’ किताब लिखी, जिसमें उन्होंने वे तमाम साक्ष्य और हवाले दिए, जो ‘सच्ची रामायण’ को समझने के लिए जरूरी थे।

श्री ललई सिंह पेरियर ललई सिंह कैसे बने, इस सम्बन्ध में श्री जगन्नाथ आदित्य लिखते हैं कि 24 दिसम्बर 1973 को नायकर जी की मृत्यु के बाद एक शोक सभा में ललई सिंह जी को भी बुलाया गया था।

यह सभा कहाँ हुई थी, इसका जिक्र उन्होंने नहीं किया है। इस सभा में ललई सिंह के भाषण से दक्षिण भारत के लोग बहुत खुश हुए। उसी सभा में उन्होंने ललई सिंह को अगला पेरियर घोषित कर दिया। उसी समय से वह हिन्दी क्षेत्र में पेरियर के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

बहुजनों के इस अप्रितम योद्धा, क्रांतिकारी लेखक, प्रकाशक और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना के प्रखर नायक ललई सिंह यादव का जन्म 1 सितम्बर 1921 को कानपुर के झींझक रेलवे स्टेशन के निकट कठारा गाँव में हुआ था और 7 फरवरी 1993 को उनके भौतिक शरीर ने अपनी जीवन-यात्रा पूरी की थी। उनके कृतित्त्व पर एक बड़े साहित्यिक काम की योजना मेरे हाथ में है, देखिए कब तक सफलता मिलती है।
पेरियार ललई सिंह को उनके जन्मदिवस पर शत्-शत् नमन !
साभार-Dr Sunil Janardan Yadav

नया

महाराजा टीकन नाथ पासी का किला, पट्टी ढिलवासी के (निकट अमानीगंज), बख्शी का तालाब, लखनऊ मे स्थित है महाराजा टिकन नाथ पासी का सम्राज्य दसवी सदी और ग्यारहवी सदी के मध्य में था ।

लखनऊ का साम्राज्य कई पासी राज्य में बटा हुआ था महाराजा टिकन नाथ पासी का राज्य की सीमायें लाखन पासी और देवमाती के राज्य से जुडी थी महाराजा टिकन नाथ पासी के राज्य में शांति और एकता रहती थी क्योंकि इनके राज्य में दोसी को किसी भी प्रकार की छमा नही मिलती थी कठोर से कठोर दंड का प्रवधान था इसी लिए इनके राज्य में शांति रहती थीं महाराजा टिकन नाथ पासी किसी के राज्य में दखल नही देते थे यही सबसे बड़ी महानता थीं ।

इनकी जब सायद सलार मसूद गाजी ने लाखन पासी के किले पर होली वाले दिन हमला किया और लाखन पासी वीरगति को प्राप्त हुए तब टिकन नाथ पासी को अपने राज्य को चिन्ता सताने लगी तब टिकन नाथ पासी ने अपनी सेना को सच्चेत कर दिया टिकन नाथ पासी के सेना में अधिकतर धनुर धर और भाला धारी थे। दुश्मन के सैनिक टिकन नाथ पासी के धनुर धर सैनिको से हमेशा भयभीत रहते थे ये सैनिक पलक झपकते ही दुश्मन के खेमे में तबाही मचा देते थे सैयद सलार मसूद गाजी ने लाखन पासी को हरा कर वहाँ का राज्य अपने सेना नायक हातिम और फातिम को सौंप दिया और सैयद सलार मसूद गाजी अपनी सेना के साथ बहराइच की तरफ निकल पड़ा और जब बहराइच में सोहेलदेव पासी ने रोका तब घनघोर युद्ध हुआ जब गाजी की सेना कमजोर हुई तो हातिम और फातिम ने अपनी 30 हजार की फ़ौज लेकर बहराइच की तरफ निकलने की तैयारी में था।

तब टिकन नाथ पासी ने अपनी धनुर धारी सेना के साथ वही रोक लिया और हातिम और फातिम की 30 हजार सेना के साथ मार गिराया और लाखन पासी के राज्य को पुनः आजाद कराया और यहाँ हातिम और फातिम को मार गिराया और उधर बहराइच में सोहेलदेव पासी ने गाजी को मार गिराया फिर उसके बाद मुस्लिमो ने लगभग सौ डेढ़ सौ साल तक नजर नही उठाया उत्तर भारत की तरफ