उत्तर प्रदेश पासी समाज नेतृत्व विहीन क्यों ? – अजय प्रकाश सरोज

 

धर्मवीर भारती साहेब से लेकर आर के चौधरी तक

हाल में हुए विधान सभा चुनाव में समाजवादी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे अवधेश प्रसाद,बसपा सरकार में मंत्री इंद्रजीत सरोज और इन दोनों पार्टियों की सरकार में मंत्री रहे आरके चौधरी चुनाव हार गए है। कांग्रेस ने तो पासी समाज से नेता बनाना ही छोड़ दिया है। लेकिन पासी समाज का राजनैतिक इतिहास इससे जुडा है । इसलिए चर्चा करना जरूरी भी है।

उत्तर प्रदेश की राजनीती में पासी समाज का रुतबा 1952 से 1988 तक अपनी उफान पर था । कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहते धर्मवीर जी के नेतृत्व में 26 पासी विधायक बनकर असेम्बली पहुचें थे। इस आशा के साथ की केंद्रीय नेतृत्व धर्मवीर जी को मुख्यमंत्री बनायेगा। लेकिन कुछ तत्कालीन ब्राह्मणवादी शक्तियो  के विरोध स्वरूप धर्मवीर जी मुख्यमंत्री की शपथ नहीं ले पाएं। इसी दौरान कांशीराम का आंदोलन चल रहा था । दलितों में चमार समाज के कांगेसी  नेता बाबू जगजीवन राम का प्रभाव शिथिल पड़ चुका था। जिसके  कारण अघिकतर चमार / जाटव समाज के लोग सामिल हो रहे थे। धर्मवीर जी को मुख्यमंत्री   न बनाने पर खुद को छला और ठका हुआ महसूस करने वाला पासी समाज कांशीराम के बहुजन आंदोलन की ओर देखने लगा। तब तक खण्ड विकास अधिकारी रहें राम समुझ पासी ,कांशीराम जी के करीब हो चुके थे  कांशीराम के कहने पर रामसमुझ जी नौकरी से इस्तीफा देकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए। उनके साथ पासी समाज वह तबका जो कांग्रेसः की उपेक्षा से गुस्से में था वे सब कांशीराम को अपना नेता मानकर राम समुझ जी के साथ हो लिए। इस तरह कांग्रेस की उपेक्षा का लाभ कांशीराम के आंदोलन को मिल गया। रामसमुझ जी ने पासी बाहुल इलाके में जमकर दौरा करके पासी समाज को बसपा के साथ जोड़ दिया। उसी दौरान फैजाबाद में वक़ालत करने वाले एक पासी युवक से राम समुझ जी की मुलाक़ात हुई । वह युवक आरके चौधरी थे।  बसपा में पढ़े लिखे नौजवानों की आवश्यकता थी। तो रामसमुझ जी ने चौधरी को मान्यवर कांशी राम से मिलाया  और  फिर यही से शुरु होता है। पासी नेता मैनजमेंट।  पार्टी का काम तेजी से आगे बढ़ रहा था। बहुजन नेताओ में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता  शुरू हो गई। कांशीराम जी कहने पर राम समुझ ने  इंदिरा गांधी के बेहद करीबी रहें प्रतापगढ़ के राजा दिनेश सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ गए। जिसमे उन्होने बहुत संघर्ष किया। उस चुनाव में उनकी अम्बेसडर कार तोड़ दिया गया था। लेकिन उन्होंने समंतवादियो के खिलाफ चुनाव लड़ने का  बिगुल फूक दिया । बाद में मायावती की इंट्री होते ही आपसी कम्पीटीशन का दौर शुरू हो गया। अन्ततः रामसमुझ जी को पार्टी से निकाल दिया गया। तब रामसमुझ समर्थको सहित पासी समाज फिर एक बार खुद को छला हुवा महसूस किया। लेकिन पासी समाज का दर्द बाँटने के लिए कांशीराम ने आरके चौधरी  को आगे किया। और फिर  आरके चौधरी पासी समाज के सर्वमान्य नेता हो गए। रामसमुझ जी अलग होकर संघर्ष करने लगे । अपने जीते जी अवामी समता पार्टी सहित कई संघठन चलाये । लेकिन उनकी राजनीति परवान नहीं चढ़ सकी।

पिछले दरवाज़े से सेंधमारी – मृणाल पाण्डे


ज्ञानी कह गए हैं कि लोकतंत्र का मतलब है सतत चौकसी। इस चौकसी में लगता है कुछ कमी रह गई है। राज्य चुनावों से फारिग होकर जब मीडिया और विपक्ष उत्तर प्रदेश में पकड़-धकड़ योगी आदित्यनाथ की दिनचर्या और सपा, बसपा और कांग्रेस नेतृत्व के तयशुदा विघटन पर अनवरत चर्चा में व्यस्त थे उस बीच केंद्र सरकार ने वित्त मंत्री के भाषण पर चर्चा के बाद कई विवादास्पद प्रावधानों वाले एक धन विधेयक को लोकसभा में बहुमत का पूरा लाभ उठाकर तुरत-फुरत पारित करा लिया। इस तरह बिना राज्यसभा को भेजे और व्यापक बहस के बगैर ही देश के जन-जन का जीवन प्रभावित करने वाले कई विवादास्पद प्रस्ताव बाध्यकारी कानून बना दिए गए। चतुर सुजान वित्तमंत्री ने कानूनी दलील दी थी कि धारा 388 के तहत इन विषयों का वित्तीय आयाम भी है। इसलिए प्रस्तावित संशोधन धन विधेयक के अंतर्गत लोकसभा में ही पारित हो सकते हैं। उसे राज्यसभा के विचारार्थ भेजना जरूरी नहीं है जहां विपक्ष का बहुमत है। इस जटिल विधेयक के मसौदे में पेश 150 नए प्रावधानों में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के अचानक 33 नए, किंतु महत्वपूर्ण प्रावधानों को जोड़ा गया वह तृणमूल कांग्रेस सांसद सौगत राय के अनुसार लोकसभा ही नहीं, बल्कि संसदीय इतिहास में भी अभूतपूर्व है। सांसदों को जटिल एवं तकनीकी, किंतु व्यापक बुनियादी बदलावों वाले इस प्रस्ताव को गौर से पढ़ने-समझने का वक्त ही नहीं मिला और किसी सार्थक बहस या स्पष्टीकरण के बिना ही विधेयक पारित हो गया। संख्याबल कमजोर होने से विपक्ष का प्रतिरोध भी नक्कारखाने की तूती ही साबित हुआ।
बीजू जनता दल के सांसद तथागत सत्पथी के सहायक मेघनाद ने ट्वीट के जरिये बताया कि शायद एक सोची समझी रणनीति के तहत केंद्रीय बजट पर पहले सभी को बोलने का अवसर दिया गया और इससे पहले कि सांसद कुछ समझ पाते, इस धन विधेयक का मसौदा पटल पर रख दिया गया जिसमें अंतर्विरोधों की भरमार थी। मसलन आधार कार्ड को बच्चे, बूढ़े और जवान सभी के लिए अनिवार्य बनाना। भाजपा जब विपक्ष में थी तब 2010 में उसके वरिष्ठ सांसद यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने संप्रग की इसी ‘आधार कार्ड योजना’ के प्रस्ताव को खारिज करते हुए इसे एक अस्पष्ट दिशाहीन और जबरदस्ती भरा कदम करार दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि इससे नागरिकों की निजता के अधिकार का भी हनन होगा। खुद मोदी जी ने भी अप्रैल 2014 में इसे एक तिकड़म करार दिया था। अब उसी आधार को क्यों कर इतना बाध्यकारी बनाया जा रहा है कि इसके बिना जनता न तो आयकर भर सकेगी न ही प्राइमरी कक्षा के बच्चे मिड डे मील हासिल कर सकेंगे? यहां तक कि उच्चतम न्यायालय ने भी यह कह दिया है कि जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार की अनिवार्यता जरूरी नहीं है। लोकतंत्र में ताली दोनों हाथों से ही बजती है। लिहाजा जनता या विपक्ष के लिए राजनीतिक फतवे या जुमले ठोस प्रामाणिकता पर आधारित जानकारी के विकल्प नहीं बन सकते। सरकारी गोपनीयता के नीचे दबाई गई जानकारियां पाने को ही सूचना का अधिकार कानून लंबी जद्दोजहद के बाद हासिल किया गया। दूसरी ओर यह भी एक विडंबना ही है कि जो सरकार नागरिकों के निजी जीवन में ‘आधार कार्ड सूचनाओं के मार्फत हर तरह की गहरी ताकझांक का हक चाहती है वह खुद एक जायज सूचनाधिकार कानून के तहत जनता को नोटबंदी जैसे अपने बड़े फैसले के पीछे तथ्यों की बाबत कोई भी वांछित जानकारी देने से बिदक रही है।
संविधान के अंतर्गत बने मौजूदा निगरानी प्रकोष्ठों के पुनर्गठन का प्रस्ताव भी चिंताजनक है। धारा 32 के अनुसार कानूनन ये प्रकोष्ठ आयकर विभाग की किसी निरंकुशता के खिलाफ जनता की सुनवाई करते हैं और उनमें बदलाव तभी लाए जा सकते हैं जब देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष कोई बड़ा खतरा मंडरा रहा हो। कम से कम फिलहाल तो ऐसे कोई सूरतेहाल नहीं दिखते। तब अचानक उनके पुनर्गठन और नए प्रकोष्ठ में पहले की तरह विधायिका की सलाह लिए बिना विशुद्ध सरकारी फैसले से नई नियुक्तियां करवाने की क्षमता की पेशकश समझ से परे है। चिंता तब और गहराती है जब जानकार बताते हैं कि सरकारी आयकर विभाग के अधिकारियों द्वारा छापेमारी और घर में बिना पूर्व सूचना के पड़ताल संबंधी अधिकारों का दायरा बहुत अधिक बढ़ा दिया गया है। कहीं वही कहावत तो चरितार्थ नहीं होगी कि ‘जबरा मारेगा भी और रोने भी नहीं देगा।’
अब प्रस्तावित संशोधनों से नागरिक निजता में संभावित सेंध की बात। संविधान के अनुसार निजता यानी खुद अपने और अपनों के जीवन, खान-पान, आजीविका या जीवन मूल्यों ही नहीं, बल्कि राजनीतिक राय के बारे में भी अहम फैसले करने, उन पर खुद सोचने-विचारने, दूसरे लोगों से अंतरंगता साझा करने का हक अभिव्यक्ति की आजादी की ही तरह लोकतांत्रिकता की बुनियाद है।

चंद साल पहले मोदी जी ने ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का नारा देकर हमें आश्वस्त भी किया था कि उनकी सरकार का जनजीवन में हस्तक्षेप कम से कम और अधिकतम ध्यान बेहतर प्रशासन पर रहेगा। तब सरकार में नागरिक निजता में कभी आधार कार्ड के ब्योरे जमा कर तो कभी बैंक खाते पैन से जोड़कर और कभी पार्क या सड़कों से जब जी किया किसी युवक-युवती को एंटी रोमियो दस्तों से उठवा कर या मीट की दुकान पर बीफ-बीफ चिल्लाकर छापा मारने का ऐसा अभद्र उतावलापन क्यों देखने को मिल रहा है? शंका का दूसरा बड़ा क्षेत्र निजी उपक्रमों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने से जुड़ा है। नोटबंदी के दौरान हुई तकलीफ की कचोट कम करने को बीते दिनों नागरिकों को बार-बार बताया गया कि अब सारे दलों का चुनावी काला धन तो मिट्टी बन गया है और शेष कालाबाजारियों का पैसा भी बैंकों में आने को मजबूर हो जाएगा। इससे चुनाव साफ-सुथरे होंगे और गरीबों, खासकर सूखे की मार झेल रहे किसानों को राहत, कर्जमाफी और सीधे बैंक खातों में मदद राशि भेजी जा सकेगी। कालाधन कितना निकला, इस बारे में अभी तक कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई है। वहीं अब सरकार का कहना है किसानों की कर्जमाफी से बैंकिंग व्यवस्था का दम निकल जाएगा, लिहाजा उसकी रजामंदी के बिना इस पर फैसला संभव नहीं। वहीं सब्सिडी के लिए पैन ही नहीं, बल्कि आधार कार्ड भी अनिवार्य होगा।
जहां आम लोगों की निजता के हाल ये हैं वहीं नए कानून ने चुनावी बांड के अजीब से प्रावधान को हरी झंडी दिखा दी है। इसके जरिये उद्योगपति गुमनाम रहते हुए भी अपने पसंदीदा दल को मनचाही राशि के आयकर मुक्त बांड खरीदकर ‘डोनेट’ कर सकते हैं। इन गुप्त दानकर्ताओं का नाम बताने की कोई बाध्यता दलों की भी नहीं होगी। अब कंपनियां बिना नाम बताए आयकर खातों में दर्ज मुनाफे का 50 प्रतिशत तक सरकार को दानखाते में दे सकती हैं। बताया गया है कि इसका उपयोग बुनियादी ढांचा सुधार में होगा। अचरज नहीं कि जो अनुभवी लोग ठेकों के आदान-प्रदान में सरकार तथा निर्माता कंपनियों की मधुर साझेदारी के अनगिनत प्रमाण गुजरे बरसों में देखते रहे हैं उनको लगे कि साफ चुनावों की भैंस तो गई पानी में! अभी बजट सत्र चालू है और सांसदों को वित्त विधेयक के स्वीकृत संशोधनों की अंतिम जानकारी मिलना बाकी है। ऐसे में हम कितनी उम्मीद करें कि वाकचातुर्य की धनी सरकार इन सवालों के सही-सही जवाब जनता और उसके प्रतिनिधियों को कब देगी?
[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं

मुंबई जैसवार ( चमार ) समाज ने सिने जगत के सितारों और १० हज़ार से ज़्यादा स्वजातीय साथियों के साथ मनाई संत रविदास की जयंती।

जैसवार समाज का मुंबई में जबरजसत आगाज…

Posted by Rajesh Pasi on Sunday, March 26, 2017

मुंबई : २६ मार्च २०१७ को मुंबई में अखिल जैसवार विकास संघ ने संत रविदास की जयंती मनाई ।
जैसवार समाज यानी चमार समाज ने एक ऐसा सफल आयोजन मुंबई में किया जो अपने आप में अनोखा था ।

१० हज़ार लोगों को जी हाँ ६-७ हज़ार से ज़्यादा जैसवार के लोग थे ..और २ हज़ार से ज़्यादा अन्य समाज के लोग थे । जैसवार सामाज ने इतने लोगों को मुंबई में एकत्रित किया जो अपने आप में अनोखा था मानननिय कैलाश जैसवार और सुबचन राम जी का प्रयास बहुत सराहनीय है ।

इस कार्यकम में लँदन से मिस्टर. मालकियत बेथल ( बामसेफ़ ) , मैडम कल्पना सरोज जी , मिस्टर. तारम मेहाज जी ,देवेंद्र यादव के साथ सिने जगत के सितारे भी उपस्थित थे ।
जैकी श्रोफ , शशि कपूर , एहसान कुरेशि , तारक मेहता की दया मैडम , बिग बॉस की दीपा जी , जैसे लोग उपस्थिति थे ।

इसके अलावा भी कई बुद्ध और अंबेडकरी विचार धारा के लोग इकट्ठा थे ।

१० हज़ार से ज़्यादा लोगों का हुजूम पूरा बुद्ध मय और अम्बेडकरमय था ।

मुंबई जैसी जगह में उत्तर भारत से आकर १० हज़ार लोगों के साथ जय भीम का नारा लगाया । बुद्ध के विचारों पर चर्चा की । क्या यह आम बात है ।
न सिर्फ़ मिशन के लोगों ने बल्कि सिने जगत से जुड़े लोगों ने भी बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों पर चर्चा की ।सभी ने सिर्फ़ बुद्ध और बाबा साहेब के बारे में बात की ।
सचमुच अखिलेश जैसवार विकास संघ मुंबई में बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों को आगे बढ़ा रहे है ।
अगर मुंबई सभी समाज के लोग ऐसे ही लोगों को इकट्ठा करे तो आने वाले समय बाबा साहेब के कारवाँ को आगे बढ़ने से कोई नहि रोक सकता – अख़िलेश जैसवार , सात रास्ता, मुंबई

क्या सचमुच फ़ौज के बारे में ख़ुलासा करने वाले जवान तेजबहादुर की हत्या हो गई है ?


सोशल मीडिया जितना उपयोगी है उसका उपयोग करने में भी सावधानी बरतनी चाहिए ।

इंटरनेट पर मौजूद हर अफ़वाह और उड़ती खबर को सच मानने से पहले, उसकी जांच करनी कितनी ज़रूरी है, ये आपको इस ख़बर से मालूम पड़ेगा.

हाल ही में इंटरनेट पर वायरल होती एक तस्वीर में BSF जवान तेजबहादुर यादव को मृत दिखाया गया है. वही तेजबहादुर, जो फ़ौज में घटिया खाने पर वीडियो बनाकर रातों-रात सुर्खियों में आ गए थे. मामला संवेदनशील था और बीएसएफ़ जवान से जुड़ा हुआ था, शायद इसलिए ही लोग इस तस्वीर को जमकर शेयर कर रहे थे.
लेकिन कई न्यूज़ चैनलों ने जाँच किया तो पता चला है की ख़बर फ़र्ज़ी है । टाइम्ज़ की एक वेब्सायट ने भी कन्फ़र्म किया है कि तेज़ बहादुर की यह ख़बर फेंक है ।

न्यूज़ एजेन्सीयो केअनुसार  बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स (बीएसएफ़) और यादव की पत्नी ने इन अफ़वाहों को सिरे से नकार दिया है. उन्होंने बताया कि तेजबहादुर ज़िंदा है और पूरी तरह से स्वस्थ हैं.

फ़ेसबुक और ट्विटर पर वायरल हो रही इस तस्वीर में जवान की आंखें बंद थी, नाक से खून बह रहा था और चेहरे का कुछ हिस्सा एक कपड़े से ढका हुआ था. इस जवान की तस्वीर यादव से काफी मिलती-जुलती है, पर जिसे यादव बताया जा रहा है वह दरअसल सीआरपीएफ़ का एक जवान है. कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में तैनात इस जवान की माओवादी हमले में मौत हो गई थी.
यादव की पत्नी शर्मिला यादव ने भी इन अफ़वाहों को झूठा करार दिया. उन्होंने कहा कि एक सीनियर जवान ने वायरल होती इन तस्वीरों को देख, मुझे संपर्क किया. मैंने अपने पति को फ़ोन लगाया और उनसे बात की है. वे बिल्कुल ठीक हैं और जम्मू के सांबा ज़िले में ड्यूटी पर तैनात हैं.

यादव की फ़र्जी तस्वीर के मामले में बीएसफ़ ने आधिकारिक तौर पर किसी तरह की जांच शुरू नहीं की है, पर एक अधिकारी का कहना है कि इनमें से कुछ पोस्ट्स को ऐसी आईडी से शेयर किया गया है, जिनके नाम तो भारतीय हैं, लेकिन इन पोस्ट्स की लोकेशन संदिग्ध है. ऐसे में इनकी जांच किए जाने की ज़रुरत है.

गौरतलब है कि यादव ने हाल ही में एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने बॉर्डर पर मिलने वाले घटिया स्तर के खाने की निंदा की थी. इस वीडियो में उन्होंने आर्मी अफ़सरों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए थे.

वीडियो के वायरल होने के बाद यादव की पत्नी ने दावा किया था कि उनके पति को धमकाया जा रहा है और प्रताड़ित किया जा रहा है. हालांकि बीएसफ़ ने इन दावों को सिरे से नकार दिया था और कहा था कि यादव जम्मू में तैनात हैं और अपने परिवार से किसी भी समय बात कर सकते हैं.

तो अगली बार  यह ज़रूर ध्यान रखे की किसी तस्वीर को शेयर करने से पहले उसकी जांच-परख ज़रूर कर लेना, कहीं फ़ेक तस्वीरें शेयर करने में आप भागीदार न बन जाएं.

सोर्स – विभिन्न न्यूज़ एजेन्सी 

पासी समाज शैक्षणिक और कैरियर गाइडेन्स शिविर, मुंबई यूनिवर्सिटी 

सामाजिक कार्य करने के लिए बहुत पैसों या बहुत बड़े संगठन की ज़रूरत नहि होती । ज़रूरत होती है सिर्फ़ इच्छा शक्ति की । यह कर दिखाया है मुंबई के एक ग्रुप RCP ( Reachout countrywide Pasi) ने । बेहद सीमित संसधनो के बावजूद पासी समाज में सोशल वर्क के नए तरीक़ों और कार्यशैली से पासी समाज का ध्यान आकर्षित किया है ।

Reachout countrywide Pasi [RCP]  ने बाबा साहेब की १२५ वी जयंती के उपलक्ष्य में पिछले साल मुंबई यूनिवर्सिटी में ३एप्रिल को एक दिवसीय शैक्षणिक और कैरीयर गाइडेन्स शिविर का आयोजन किया था । ईस   साल भी बाबा साहेब की जयंती उपलक्ष्य में ९ एप्रिल २०१७ को शैक्षणिक शिविर का आयोजन कर रहा है ..
इस आयोजन की खास बाते –

१ ) भारत में पासी समाज में ऐसा कार्यक्रम एक विश्वविद्यालय के प्रांगण में होगा जी हाँ RCP यह कार्यक्रम मुंबई यूनिवर्सिटी में होता है ।

2. गाइडेन्स देने वाले और लेने वाले दोनो ही पासी समाज से होंगे । 

3. यह प्रोग्राम शानदार एसी हॉल में होगा ताकि हमारे समाज के बच्चों पर इसका पॉज़िटव असर पड़े उन्हें भी पता चले की समाज की अब वह पहचान नहि है जो पहले थी 

4. Projector और कम्प्यूटर का उपयोग किया जाएगा 

5. १०० + विद्यार्थी के और उतने ही पेरेंट की एक साथ बैठने की सुविधा है

6. लंच ब्रेक में सभी विद्यार्थियों और पेरेंट के लिए नी:शुल्क मिनी लंच की वस्था है ।

7. पहली बार होगा जब हमारे समाज के बच्चे बिना ग्रैजूएशन में पहुँचे कम उम्र में यूनिवर्सिटी की सैर करेंगे नोलेज प्राप्त करेंगे। कई बार हमारे समाज के बच्चे ग्रैजूएशन तक पहुँचते ही नहि बहुत से बच्चे १२ वी तक पहुँचते पहुँचते ड्रॉप आउट हो जाते है । कम उम्र में यूनिवर्सिटी पहुँचने पर कम से कम एक लक्ष्य तो होगा की यूनिवर्सिटी तक पहुँच कर पढ़ाई करनी है ।

8. मार्गदर्शन करने वाले अपने ही समाज से है जो उन्ही परिस्थितियों से गुज़रे है जहाँ से अधिकतर अपने समाज के बचे गुज़र रहे है मार्गदर्शन देने वाले जानते है की हमारे बचो में भविष्य के लिए कैसे कॉन्फ़िडेन्स बढ़ना है 

9. समाज के ६ अलग अलग क्षेत्रों में सफलता पाए इस आयोजन के मार्गदर्शक अपना इक्स्पिरीयन्स बच्चों से साझा करेंगे।

10. और सबसे बड़ी बात यूनिवर्सिटी के इस आयोजन में पासी समाज के सभी बच्चों को और उनके पेरेंट को एंट्री बिलकुल फ़्री है ।
प्रमुख मार्गदर्शक (२०१६)

राजेश पासी CMA-Inter , B.Com

Corporate Manager 
भरत पासी B.Com

 Solution Architect – IT ( USA return )
राकेश कुमार -BE, ME (electronic and telecommunication), Lecturer at St Xavier’s Technical institute
बृजेश सरोज – IIT IAN
प्रभावती सरोज Mcom, CA and CS final

Sr. Officer- Accounts
संजय जी M.Sc. Physics .MLS

Ex. Member of Senate [ University of Mumbai ]
राकेश सरोज – B.A.(Hons.),MBA, भारत सरकार 
सुरेशचंद्र पासी – BE(computer),MBA(MSW)

AYM INDIAN RAILWAY
डा० ज्योति सरोज – MBBS

 
आप लोग प्रतसोहन करने के लिए  इस मैसेज को मुंबई से जुड़े लोगों और मुंबई के आस पास के लोगों में शेयर कर सकते है ताकि जयदा से ज़्यादा समाज के बचे लाभविनीत हो 
इन कार्य्क्र्मों के बारे में जानकारी या RCP के बारे में जानकारी के लिए लिए सम्पर्क करे – 

सुधीर सरोज – +91 9221993017

राम आसरे सरोज -+91 9870836502

राजेश पासी – 9594356043

पवन रावत -+91 9004415094

शोभा सरोज – 097681 75191 ( केवल महिलाओं के लिए )

एंटी रोमियो स्क्वाड से ईतना आश्चर्य क्यों ? मैडम सुदीप्ति बावरी की वाल से !

(नोट : लेख में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग है जिन्हें शायद असभ्य या अश्लील माना जाय ,पर ऐसे शब्दों के बिना आज की यह सच्चाई समझ में नहीं आएगी , इसलिए नाबालिग़ और कट्टर धार्मिक लोग इस पोस्ट से दूर रहे )

एंटी  रोमियो स्क्वाड बनाते देख जाने लोग इतने आश्चर्य में क्यों भर गए हैं? रह-रह कर तर्क दे रहे हैं कि रोमियो एक महान आख्यान का नायक और प्रेमी किरदार है। उसे छेड़छाड़ वाला क्यों बना रहे हो? 
क्या आपको सच में लगता है कि बनाने वालों को नहीं पता है? उनको प्रेम, मुहब्बत, इश्क़ और छेड़छाड़, जबरदस्ती, बलात्कार का अंतर पता है और पर समझना चाहेंगे इसमें मुझे घोर संदेह है। 

दरअसल उनके लिए छेड़ और जबरन की जा रही चीजें स्वीकार्य हैं पर प्रेम नहीं। यह बात अज़ीब लग रही है आपको?
आप भला हमारे समाज को किन चश्मों से देखते हैं कि रह-रह कर आश्चर्य में भर उठते हैं?

यहाँ प्रेम निषिद्ध है। यहाँ प्रेम वर्जित है। यहाँ विवाह होते हैं प्रेम नहीं। 

प्रेम का मतलब उच्श्रृंखलता, नाक कटाना, इज्जत गवाना जैसा सब कुछ होता है। जिस आदमी को माँ-बाप, रिश्तेदार, समाज की अनुमति से तय कर लेते हैं वो अचानक से कुछ अटपटे मन्त्रों के बाद एक बिस्तर साझा करने के योग्य हो जाता है। पर यदि कोई लड़की/स्त्री किसी लड़के/पुरुष को परिचय, दोस्ती, प्रेम और लालसा वश ही चुनती है तो वो सबकी बेइज्जती हो जाती है। मुझे पहले कभी भी समझ नहीं आया कि स्वयं द्वारा चयनित सम्भोग इस समाज में इतना घृणित क्यों माना जाता है कि उसके लिए लोग क़त्ल तक कर जाते हैं। वहीं परिवार के लोगों द्वारा थोपा सम्भोग पवित्र माना जाता है।
फिर जब सोचना शुरू किया तो पाया कि क्योंकि प्रेम उदार बनाता है, प्रेम इनकी सीमाओं(धर्म, जाति, बिरादरी और भी बहुत) सीमाओं को तोड़ता है, प्रेम एक स्तर पर समानता भी लाता है। इसलिए समाज और पितृसत्ता के ठेकेदार तो उसके खिलाफ रहेंगे ही। प्रेम के कारण न सिर्फ स्त्रियों बल्कि युवा वर्ग पर भी प्रभुत्व ख़त्म हो जाएगा इसलिए इनके लिए वो अस्वीकार्य है।
आपने देखा है न दहेज़ का रोना रोते, बेटी को न चाहने की वजह दहेज़ की लोभी वृत्ति को बताने और लड़की को बोझ मानने वाले तथाकथित संस्कारी लोगों को। वे हर हाल में इन्हीं रूढ़ियों का वहन करना चाहते हैं जिनका रोना रोते हैं। बेटी/बेटा कोई इन सीमाओं से हट प्रेम कर ले तो दहेज़ इनके लिए मूल समस्या नहीं कटी हुई अदृश्य नाक है। 

इसलिए कंफ्यूज होने वाले मेरे फेसबुकिए दोस्तों मत सोचिए कि आपके त्रासद नायक ‘रोमियो’ को प्रेम से वंचित कर छेड़छाड़ का प्रतीक बनाया जा रहा है।
ये प्रेम के निषेध का एक संस्कारी और सरकारी उपाय है।
Note: क्राँतिकारी विचारों के जो दोस्त कृष्ण को छेड़छाड़ का प्रतीक बना रहे हैं उनसे मेरा निवेदन है मिथकों को इतने सरल रंगीन चश्मों से न देखें। कृष्ण कथाओं को पढ़िए। कृष्ण की वो सारी लीलाएँ चुहल थीं और चुहल और मोलेस्टेशन में फर्क होता है। चुहल जिससे की जाती है उसे भी गुदगुदी होती है। कृष्ण अक्सर इसलिए छेड़ते रहे कि जिनको छेड़ रहे हैं उनके मन को वह भा रहा था। वो ऐसा चाहती थीं। उनकी कामना थी कि कन्हैया उनको सताएँ।

मटकी तोड़ने, माखन खाने से लेकर प्रेम का निवेदन तक कृष्ण ने सामने वाले के रंजन के लिए किया है। किसी कृष्ण साहित्य में नहीं दिखाया गया है कि कृष्ण ने जबरन किसी को प्रेम/छेड़/चुहल की और उस गोपिका/स्त्री ने अपमान अनुभव किया। जरुरी नहीं है कि हम सभी पाठों को किसी विषाक्त विमर्श में तोड़-मरोड़ दें। 
ये कहते हुए मैं बताना चाहती हूँ कि कृष्ण के मिथकीय चरित्र के प्रति मेरा आकर्षण है पर उसके लिए कोई आग्रह नहीं। कमज़ोरी नहीं। पुराण और आख्यान पढ़ना पसंद है और उसी ज्ञान के आधार पर कह रही हूँ। कृष्ण को पूर्ण पुरुष कहा जाता है। क्यों? ये पता कीजिएगा। 
वैसे भी आप जिनका विरोध कर रहे हैं वो राम के आग्रही हैं, कृष्ण को वो स्वीकार ही नहीं कर पाएंगे। पत्नी को त्यागने वाले, स्त्री को अपने प्रेम नहीं मान-अपमान की वस्तु बना बदला ले उसकी अग्नि परीक्षा लेने वाले को आदर्श मानने वाले लोग क्या कृष्ण को समझेंगे?
और हाँ अगर मायथोलॉजी से एंटी स्क्वाड बनाना ही है तो

#एंटी_इंद्र_स्क्वाड बनाए जो स्त्री के शोषण में किसी भी भाषा के किसी आख्यान के महानतम खलपात्र को मात दे सकता है।

 #एंटी_विष्णु_स्क्वाड बनाएं। (उन्होंने दूसरे को हराने के लिए उसका वेश बना उसकी पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध बनाया।)

#एंटी_ब्रह्मा_स्क्वाड बनाएं जिसने पुत्री की मर्ज़ी के खिलाफ उससे बलात्कार किया और बदले में हमारे प्रिय शिव ने एक सिर काट दिया।

पर जैसा कि लिख चुकी हूँ। इनको स्त्री के हित के लिए नहीं उसको काबू में करने के लिए बनाना है। तो प्रेम-विरोधी ही बनाएंगे न ?

भाजपा सरकार की छवि को दागदार कर देगा नवनीत सहगल

  

उत्‍तर प्रदेश का सबसे विवादित एवं भ्रष्‍ट आईएएस अफसर नवनीत सहगल, फिर नई सरकार में मुख्‍यमंत्री को अपने मोहपाश में लेने को बेचैन हो उठा है। कभी मायावती और बाद में अखिलेश यादव का खासमखास बना यह अधिकारी अब योगी आदित्‍यनाथ के आसपास भी मंडराने लगा है। संभव है कि दिल्‍ली के चर्च की जमीन को अपनी पत्‍नी तथा अखिलेश दास की पत्‍नी के नाम से फर्जी पॉवर ऑफ अटार्नी बनवाने वाला यह अधिकारी अब भाजपा की सरकार में अपने स्‍वजातीय खत्री नेता लालजी टंडन और उनके पुत्र कैबिनेट मंत्री आशुतोष उर्फ गोपालजी टंडन तथा इंडिया टीवी के पत्रकार हेमंत शर्मा का हाथ पकड़कर मुख्‍यमंत्री का प्रमुख सचिव या सरकार का मुख्‍य सचिव भी बन जाए। अगर ऐसा होता है तो सवाल योगी या उत्‍तर प्रदेश की सरकार से ज्‍यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर उठेगा। उन्‍हीं अमित शाह पर, जिन्‍होंने समाजवादी पार्टी की सरकार पर लखनऊ-आगरा एक्‍सप्रेस वे को लेकर सवाल उठाए थे। इसी नवनीत सहगल ने 18 करोड़ प्रति किमी के हिसाब से बनने वाले एक्‍सप्रेस वे को 31 करोड़ रुपए प्रतिकिमी से ज्‍यादा में बनवाकर अपनी काबिलियत को अंजाम दिया है। इसी सहगल के कारनामें के चलते पहले मायावती की सरकार और अब अखिलेश की सरकार भी चली गई। अगर भाजपा ने एनआरएचएम घोटाले में नाम आने वाले इस अधिकारी से दूरी नहीं बनाई तो उसे भी इसकी पूरी कीमत चुकानी पड़ेगी। एनआरएचएम घोटाले में इस भ्रष्‍टाचारी का नाम घोटाले का सूत्रधार गिरीश मलिक ने भी लिया था, लेकिन अपनी पहुंच और पहचान की बदौलत यह पाक-साफ हो गया। अगर इस मामले की ईमानदारी से जांच कराई जाए तो सहगल को प्रदीप शुक्‍ला और बाबू सिंह कुशवाहा की तरह जेल में होना चाहिए था, लेकिन शातिर सहगल अपनी सेटिंग की बदौलत बच निकला। जिस भरोसे के साथ प्रदेश की जनता ने भाजपा को बहुमत दिया है, अगर सहगल जैसे भ्रष्‍ट अधिकारियों को इस सरकार में भी महत्‍वपूर्ण विभाग दिए गए तो यह जनता के साथ विश्‍वासघात और नाइंसाफी होगी। खुद भाजपा के दिग्‍गज नेता आईपी सिंह ने पीएमओ पत्र लिखकर इस भ्रष्‍टाचारी अधिकारी के जांच की मांग की थी, इसके बाद भी भाजपा सहगल को प्रमुखता देती है तो फिर माना जाएगा कि पैसे और सेटिंग से सबकुछ बिक सकता है। यह अधिकारी जहां भी रहा, वहां इसने भ्रष्‍टाचार और पैसे उगाहने का ताना-बाना रचा। भाजपा के एजेंडे में शामिल काशी विश्‍वनाथ मंदिर तक को अपने गंदी सोच के जरिए भ्रष्‍टाचार का अड्डा बनाने का प्रयास किया। अगर काशी के पुरोहितों ने विरोध नहीं‍ किया होता तो बाबा भोलेनाथ के नाम पर फर्जी प्रसाद वितरण ऑनलाइन चल रहा होता। इसी भ्रष्‍ट अधिकारी ने मायावती के शासन काल में सरकारी चीनी मिलें औने-पौने दामों पर पोंटी चड्ढा को बिकवा कर अपनी भी जेबें भरी और मायावती को भी खूब कमवाया। जनता के पैसा इनकी जेब में गया। इसी सहगल ने ता‍ज कारिडोर मामले में अपने बचाव के लिए कांग्रेसी नेता संजीव अवस्‍थी का फिल्‍मी अंदाज में पुलिस से अपहरण करवाकर उसको फर्जी मामले में जेल भिजवाया था। आगरा का टोरेंट पावर घोटाला हो या फिर कानपुर का पाइप लाइन बिछाने का घोटाला, प्रत्‍येक घोटाले में इसी अधिकारी का नाम आया, लेकिन अपनी सेटिंग-पहुंच और पैसे के बल पर हर बार यह बचता गया। अगर भाजपा सरकार में भी इस भ्रष्‍ट नौकरशाह की ताजपोशी होती है तो यह लोकतंत्र का काला अध्‍याय होगा। यह भी साबित होगा कि चाहे सपा-बसपा हों या कांग्रेस या भाजपा, सारे दल अंदर से एक जैसे हैं। मक्‍खन मलाई चटाकर और सेटिंग करके यह प्रमुख पद पर पहुंच गया तो यह भाजपा की असफ़लता  

के पतन की शुरुआत होगी।

 —पत्रकार अनूप गुप्ता की रिपोर्ट

२० मार्च १९२७ महाड आंदोलन , क्रांति की भूमि की एक यात्रा और आज की स्थिति !

आज ही के दिन २० मार्च १९२७ को एक क्रांति हुई थी , एक ऐसी शांति पूर्ण क्रांति जिसने हज़ारों सालों की मान्यताओं को एक झटके से ध्वस्त कर दिया । आज के दिन ही बाबा साहेब ने महाड के तालाब में पानी पी कर मनुवादी द्वारा बनाए नियम क़ायदे ध्वस्त कर दिये और सबको एक ही तालाब में पीने की आज़ादी दी । यह सिर्फ़ पानी पीने की आज़ादी की क्रांति नहि थी बल्कि उस मनुवादी वस्था के ख़िलाफ़ यलगार था जहाँ तालाब में जानवर तो पानी पी सकता था पर ..एक इंसान पानी नहि पी सकता था । 


आज मैं राजेश पासी उस ऐतिहासिक स्थल को महसूस किया जहाँ उसी जगह बाबा साहेब ने मनुवादी वयस्था के ख़िलाफ़ क्रांति की शुरुआत की थी । आज मैं तालाब की उन्ही सीढ़ियों पर मौजूद था जहाँ से कभी बाबा साहेब ने क्रांति की चिंगारी जलाई थी जिसकी धमक पूरी दुनिया में दिखाई दी । आज इस ऐतहसिक स्थल पर मैं राजेश पासी अपने साथियों के साथ उस स्थान के दर्शन के किए । 


हमने उस ऐतिहासिक स्थल को और उस क्रांति को महसूस करने की कोशिश की जिसने इस देश के आने वाले इतिहास को बदल दिया । अब यह छोटा सा गाँव गाँव नहि रह गया है बल्कि शहर में तब्दील हो गया है । आज २० मार्च के दिन लाखों लोग आते है यहाँ बाबा साहेब को याद करने , पर मीडिया में कभी चर्चा नहि होती । प्रशासन से भी कोई ख़ास सहायता नहि मिलती वहाँ के लोकल रहवासी ही और कुछ प्राइवेट कम्पनियाँ रहने और खाने पीने की भी मुफ़्त वस्था करते है .रास्ते में पड़ने वाले गाँवो में जगह जगह लोगों के लिए मुफ़्त जलपान का स्टाल लगाए हुए थे । पूरे महाड में इसे आज भी एक उत्सव की तरह मानते है और क्रांति को याद करते है। देश और प्रशासन भले भूल गए हो पर  लाखों लोग आज भी २० मार्च के दिन यहाँ बाबा साहेब  को याद करने के लिए उनके अनुयायी मौजूद रहते है । – जय भीम , राजेश पासी ,मुंबई 

केशव मौर्य मुख्यमंत्री क्यों नहीं ? 1980 में धर्मवीर का भी हुआ था विरोध , क्या फिर से पिछड़ो और अनुसूचितों को छला जाएगा?

इला०/ देश की सवर्णवादी मानसिकता का ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश की राजनीति में खूब झलक रहा है। विधानसभा के चुनाव में भाजपा की अप्रत्याशित जीत भले ही लोगो के गले से न उतर रही हो लेकिन इलाहाबादी प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य की काबिलियत और मेहनत पर कोई भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता । गैर यादव अतिपिछड़े वर्ग को भाजपा के खेमे लाने का पूरा श्रेय  केशव को ही माना जा रहा है। केशव मौर्य अपनी रणनीति से अतिपिछड़ों में यह आश जगाने में कामयाब रहे कि भाजपा में अतिपिछड़ों को पूरा पूरा सम्मान मिलेगा । जिस पर भरोसा करके प्रदेश का यह वर्ग पूरी तरह से  भाजपा को वोट किया और भाजपा 325 सीट पाकर  प्रचंड बहुमत में आ गई। लेकिन सत्ता मिलते ही कोमा में रहे बूढ़े भाजपाइयों और RSS की सवर्णवादी मानसिकता  में ऊर्जा का संचार हुआ, तो लगे  केशव की जगह सवर्ण मुख्यमंत्री  बनाने की योजना बनाने । 

आपकों बता दें क़ि सत्र-1978 में काँग्रेस ने भी इलाहाबाद-कौशाम्बी (द्वबा) के अनुसूचित जाति के धर्मवीर पासी जी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। उन्ही नेतृत्व में कांग्रेस को विधान सभा चुनाव में 308 सीट मिली थी । तब नैतिक रूप से उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था लेकिन उस समय भी ब्राह्मणवादी शक्तियों ने इलाहाबादी अनुसूचित समाज के बड़े नेता को मुख्यमंत्री की शपथ नहीं लेने दिया,और विश्नाथ प्रताप सिंह मुख्यमंत्री बने थे। साथ में यह भी याद दिला दूँ कि इस भेद भाव के बाद ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस गर्त में चली गई। जो आजतक उबर नहीं पायी । 

मैं इसलिए यह घटना जोड़ रहा हूँ कि दलित -पिछड़े  नेता ब्राह्मणवादी पार्टियों के लिए कितना भी जान लगाकर मेहनत करें अंततः उन्हें भेद भाव का शिकार होना ही पड़ता है । कहने को तो अब भाजपा ब्राहम्णवादी पार्टी नहीं रही ? तो क्यों न केशव मौर्य को मुख्यमंत्री बनाकर इसे सिद्ध करे दें।

क्या कांग्रेसी धर्मवीर के जैसे ही भाजपाई केशव मौर्य  के साथ भी होगा ? अगर ऐसा होता है तो आने वाले दिनों में भाजपा भी कांग्रेस कि तरह ही  हो जायेगी । -अजय प्रकाश सरोज संपादक -श्री पासी सत्ता पत्रिका