आज फिर एक मई है। आज फिर श्रम दिवस है। इसमें नया क्या है! इसमें कुछ भी तो नया नहीं है। हर साल आता है। हर साल इस दिन के पहले वाली शाम को मजदूरी करती महिलाएं या पुरुषों की फोटो अखबारों में फाइल होती हैं। हम उसे छापते रहे हैं, अब तो छापते भी नहीं। अब तो हममें श्रम दिवस के औपचारिक सम्मान की भी शर्म नहीं बची। श्रम दिवसों के विभिन्न आयोजनों में ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’ गाते हुए अपने आप को कोसते हुए से घर लौट आते हैं। हम ऐसे ही श्रमिक हैं। या कुछ ऐसे भी छद्मी श्रमिक हमारी जमात में शामिल हैं, जो सत्ता-पूंजी-पीठों के दलाल हैं, उन्हीं का खाते हैं, उन्हीं का गाते हैं और हमें भरमाते हैं। हमारा जागना भी मर रहा है और हमारा सपना भी मर रहा है. यह किसी के सरोकार का मसला नहीं रहा, यह सत्ता, व्यवस्था और समाज की चिंता का विषय नहीं रहा। चिंताजनक और अफसोसजनक बात यह है। पिछले दिनों जब वोट पड़ रहे थे तब लाइन में खड़े एक मजदूर किस्म के अधेड़ से आदमी ने झुंझला कर कहा था, ‘देर हो रही है, काम नहीं हुआ तो खाएंगे क्या आज! वोट तो हर साल देते हैं, वोट ही देते-देते तो आज खाने-खाने को मोहताज हो गए। क्या मिलेगा वोट डालने से। बस हर बार कुछ न कुछ प्रलोभन के चक्कर में फंस कर आ जाते हैं। अब तो बंद कर देंगे वोट डालना। कुछ बदलना ही नहीं है तो वोट क्यों डालना? एक श्रमिक की बोली यह संदेश दे रही थी कि अब देश के श्रमिकों का सपना मर रहा है। पत्रकार भी खुद को श्रमजीवी कहते हैं। गंदे रास्ते से पत्रकारों के वित्तीय स्रोत बंद हो जाएं तो उनकी भी दशा उसी मजदूर की तरह है, जिसे अब सपने देखना भी गवारा नहीं। श्रम दिवस के दिन श्रमजीवियों के मरते स्वप्न पर हृदय से सहानुभूति प्रकट करता हूं. यह ठीक वैसे ही है जैसे जिंदा रहते हुए अपना श्राद्ध करना… अवतार सिंह पाश की एक कविता है, उसमें थोड़ा सामयिक-फेरबदल करके, आपके सामने रखता हूं। पाश, ऐसा श्रमचेता कवि है जो सपनों के मुर्दा होने के खिलाफ जीता है और जिसे युवावस्था में ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। हम-सब वह कविता पढ़ें और जतन करें कि हमारे सपने जिंदा रह पाएं, ताकि हम कभी तो हो पाएं कामयाब एक दिन..!
…कपट के शोर में, सही होते हुए भी दब जाना- बुरा है,
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त गुजार लेना- बुरा है।
सबसे खतरनाक होता है, मुर्दा शांति से भर जाना,
तड़प का न होना, सब सहन कर जाना।
सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना।
सबसे खतरनाक वो घड़ी होती है,
जो हमारी कलाई पर चलती हुई भी,
हमारी नजर में रुकी होती है।
सबसे खतरनाक वो आंख होती है,
जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है,
जिसकी नजर दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है,
जो लोगों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है,
जो रोजमर्रा के चलन को पीती हुई, जीती हुई,
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है।
सबसे खतरनाक वो चांद होता है,
जो हर हत्याकांड के बाद,
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है,
लेकिन हमारी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं चुभता।
सबसे खतरनाक वो गीत होता है,
जो हमारे कानों तक पहुंचने के लिए मरसिए पढ़ता है,
डरे-सहमे लोगों के दरवाजों पर गुंडों की तरह अकड़ता है।
सबसे खतरनाक वह रात होती है, जो जिंदा रूह के कलेजों पर ढलती है,
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते हैं और हुआं-हुआं करते हैं गीदड़,
हमारे मन के दरवाजे-चौखठों पर वही उल्लू साधने वाली बोलियां,
और हुआं-हुआं की रुदालियां चिपक जाती हैं।
सबसे खतरनाक वो दिशा होती है,
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए,
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के बाएं हिस्से में चुभ जाए।
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे जीते-जी हमारा स्वप्न मर जाए…
-वरिष्ठ पत्रकार प्रभात रंजन दीन